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Wednesday, October 18, 2017

श्री कृष्ण लीला



SHRI KRASHN LEELA श्री कृष्ण लीला
SHRI KRASHN LEELA श्री कृष्ण लीला 
हे आनंद उमंग भयो; जय हो नन्द लाल की। नन्द के आनंद भयो, जय कनैया लाल की॥  
हे ब्रज में आनंद भयो; जय यशोदा लाल की। नन्द के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की॥ 
हे आनंद उमंग भयो; जय हो नन्द लाल की। गोकुल के आनंद भयो; जय कन्हैया लाल की॥ 
जय यशोदा लाल की; जय हो नन्द लाल की। हाथी, घोड़ा, पालकी; जय कन्हैया लाल की॥ 
जय हो नन्द लाल की; जय यशोदा लाल की। हाथी, घोड़ा, पालकी; जय कन्हैया लाल की॥ 
हे आनंद उमंग भयो; जय कन्हैया लाल की। हे कोटि ब्रह्माण्ड के; अधिपति लाल की॥ 
हाथी, घोड़ा, पालकी; जय कन्हैया लाल की। हे गौने चराने आये;जय हो पशुपाल की॥ 
नन्द के आनंद भयो; जय कन्हैया लाल की। आनंद से बोलो सब; जय हो ब्रज लाल की॥ 
हाथी, घोड़ा, पालकी; जय कन्हैया लाल की। जय हो ब्रज लाल की;पावन प्रतिपाल की॥ 
हे नन्द के आनंद भयो; जय हो नन्द लाल की। 
भगवान् श्री कृष्ण की वेणु नाद सुन कर गोपियों द्वारा वन में आकर महारास के प्रसंग में कहा कि यह महारास काम की नहीं, अपितु भगवान् श्री कृष्ण की कथा है। यह जीव शिव के मिलन और काम के नष्ट होने की कथा है।भगवान् शिव शंकर द्वारा महारास के दर्शन करके भगवान् द्वारा गोपेश्वर नाम प्राप्त होने की कथा को और महारास के चलते गोपियों का भगवान् से दूर हो जाने एवं अक्रुर जी द्वारा कंस के भेजने पर भगवान् श्री कृष्ण-बलराम को मथुरा ले जाने के विरह प्रसंग को सुन कर सभी व्यक्ति भावुक हो जाते हैं और उनकी आँखों से अश्रु बहने लगते हैं।  
जन्म कथा :- कंस अपनी सबसे चहेति चचेरी बहन देवकी जो कि शूर-पुत्र वसुदेव को ब्याही गई थीं, को  विदा करने के लिए स्वयं रथ हाँककर ले जा रहा था तो, उसने यह आकाशवाणी सुनी कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी; तो वह बहुत शंकित हो गया। उसने वासुदेव-देवकी को कारागार में डाल दिया। कंस के चाचा और उग्रसेन के भाई देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था, जिनमें देवकी भी एक थीं।

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जब कंस ने देवकी के छः बालकों मार डाला तब सातवें गर्भ में भगवान शेष जी देवकी के गर्भ में पधारे। इधर भगवान विष्णु ने अपनी योगमाया से कहा कि हे कल्याणी! तुम ब्रज में जाओ। वहाँ पर देवकी के गर्भ में मेरे अंशावतार शेष जी पहुँच चुके हैं। तुम उन्हें नन्द बाबा की पहली पत्नी रोहिणी के गर्भ में रख दो और स्वयं उनकी दूसरी पत्नी यशोदा के गर्भ में स्थित हो जाओ। तुम वहाँ दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशायिनी, शारदा, अम्बिका आदि अनेक नामों से पूजी जाओगी। मैं भी अपने समस्त ज्ञान, बल तथा सम्पूर्ण कलाओं के साथ देवकी के गर्भ में आ रहा हूँ।
हे परीक्षित! इस तरह शेष भगवान के अवतार बलराम जी पहले देवकी के गर्भ में आये और फिर उनको योगमाया ने देवकी के गर्भ से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में रख दिया। इसीलिये बलराम जी की दो माताएँ हुईं। तत्पश्चात  भगवान विष्णु स्वयं देवकी के गर्भ में आ पहुँचे।सातवें बच्चे (संकर्षण जी, बलराम) का उसे कुछ पता ही नहीं चला।
कृष्णावतार :- यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान  भगवान् कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। नक्षत्रों में विशेष कांति आ गई थी। भादों माह की अष्टमी तिथि थी। रोहिणी नक्षत्र था। अर्द्धरात्रि का समय था। बादल गरज रहे थे और घनघोर वर्षा हो रही थी। उसी काल में देवकी के गर्भ से प्रकट हुये। उनकी चार भुजाएँ थीं जिनमें वे शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुये थे। वक्षस्थल पर श्री वत्स का चह्न था। कण्ठ में कौस्तुभ मणि जगमगा रही थी। उनका सुन्दर श्याम शरीर था जिस पर वे पीताम्बर धारण किये हुये थे। कमर में कर्धनी, भुजाओं में बाजूबन्द तथा कलाइयों में कंकण शोभायमान थे। अंग प्रत्यंग से अपूर्व छटा छलक रही थी जिसके प्रकाश से सम्पूर्ण बन्दीगृह जगमगा उठा। वसुदेव और देवकी विस्मय और हर्ष से ओत-प्रोत होने लगे। यह जान कर कि स्वयं भगवान उनके पुत्र के रूप में पधारे हैं उनके आनन्द की सीमा नहीं रही। बुद्धि को स्थिर कर दोनों ने भगवान को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे।
स्तुति करके देवकी बोलीं कि हे प्रभु! आपने अपने दर्शन देकर हमें कृतार्थ कर दिया। अब मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप अपने अलौकिक रूप को त्याग कर सामान्य बालक का रूप धारण कर लीजिये। भगवान ने देवकी से कहा, “हे देवि! अपने पूर्व जन्म में आप दोनों ने घोर तपस्या की थी और ब्रह्मा जी से वरदान में मुझे पुत्र रूप में माँगा था। अतः ब्रह्मा जी के वरदान को सत्य सिद्ध करने के लिये मैंने आप लोगों के पुत्र के रूप में अवतार लिया है।फिर वे वसुदेव से बोले, “हे तात! मैं अब बालक रूप हो जाता हूँ। आप मुझे गोकुल में नन्द बाबा के यहाँ पहुँचा दीजिये। वहाँ पर मेरी योगमाया ने कन्या के रूप में यशोदा के गर्भ से जन्म लिया है। आप उसे यहाँ ले आइये। इतना कहकर उन्होंने बालक रूप धारण कर लिया।
भगवान् की माया से वसुदेव की हथकड़ी-बेड़ी खुल गईं, पहरेदारों को गहन निद्रा व्याप्त गई, और कपाट भी खुल गये। वसुदेव बालक को लेकर गोकुल की ओर चले। बादल धीरे-धीरे गरज रहे थे। जल की फुहारें पड़ रहीं थीं। शेष जी अपना फन फैला कर छतरी बने हुये बालक को ढँके हुये थे। वसुदेव जी यमुना पार करने के लिये निर्भय होकर जल में घुस पड़े। भगवान के चरण को स्पर्श करने के लिये यमुना जी का जल चढ़ने लग गया। ज्यों-ज्यों वसुदेव बालक को ऊपर उठाते, त्यों-त्यों जल और भी ऊपर चढ़ता जाता। इस पर वसुदेव के कष्ट को जान कर भगवान् ने अपने चरण बढ़ा कर यमुना जी को उसे छू लेने दिया और जलस्तर नीचे आ गया। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र नंद के यहाँ शिशु को पहुँचा आये। लौटते वक्त वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या (-योगमाया) को ले आये। 
योगमाया  अष्टभुजा देवी  प्रकट होना :- यशोदा जी अचेत होकर अपनी शैया पर सो रहीं थीं उन्हें नवजात कन्या के जन्म का कुछ भी पता नहीं था। वसुदेव ने अपने पुत्र को यशोदा की शैया पर सुला दिया और उनकी कन्या को अपने साथ बन्दीगृह ले आये। वसुदेव जी भगवान् श्री कृष्ण को गोकुल में छोड़ कर वहां से योग माया को लेकर आए। कन्या को देवकी की शैया पर सुलाते ही हथकड़ी-बेड़ी अपने आप लग गये, कपाट बन्द हो गये और पहरेदारों को चेत आ गया।चराचर जगत में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो माया को जान सके। सभी जीवों को माया ने ही जकड़ रखा है।  और कंस के काल के जन्म की घोषणा कर दी गई जिसे सुनकर कंस भयभीत रहने लगा।शिशु के रोने की आवाज सुन कर पहरेदारों ने कंस को देवकी के गर्भ से कन्या होने का समाचार दिया। कंस उसी क्षण अति व्याकुल होकर हाथ में नंगी तलवार लेकर बन्दीगृह की ओर दौड़ा। बन्दीगृह पहुँचते ही उसने तत्काल उस कन्या को देवकी के हाथ से छीन लिया। देवकी अति कातर होकर कंस के सामने गिड़गिड़ाने लगीं और कहा कि वो उनके छः पुत्रों का वध कर चुका था। आकाशवाणी तो उसे पुत्र के द्वारा होने मृत्यु की चेतावनी दी थी न की कन्या द्वारा। अतः उन्होंने बहुत गिड़गिड़ाकर उससे प्रार्थना की कि वो उस कन्या का वध न करे। देवकी के रोने गिड़गिड़ाने पर भी दुष्ट कंस का हृदय नहीं पिघला और उसने कन्या को शिला पर पटक कर मारने के लिए ज्योंही ऊपर उछाला, त्योंही कन्या उसके हाथ से छूट कर आकाश में उड़ गई और आकाश में स्थित होकर अष्ट भुजा रूपाकृति धारण कर के आयुधों से युक्त हो गईं और बोलीं कि हे दुष्ट कंस! तुझे मारने वाला तेरा काल तो कहीं और उत्पन्न हो चुका है। तू व्यर्थ निर्दोष बालकों की हत्या न कर। इतना कह कर योगमाया अन्तर्ध्यान हो गई। योगमाया की बातों को सुन कर कंस को अति आश्चर्य हुआ और उसने देवकी तथा वसुदेव को कारागार से मुक्त कर दिया। तत्पश्चात् कंस ने अपने मन्त्रियों को बुला कर योगमाया द्वारा कही गयी बातों पर मन्त्रणा करने लगा। कंस के मूर्ख मन्त्रियों ने सलाह दी कि पिछले दस दिनों के भीतर उत्पन्न हुये सभी बालकों को भी मार डालना चाहिये।
माँ भगवती राधा जी का अवतार :  गोलोक में किसी बात पर राधा जी और श्री दामा नामक गोप में विवाद हो गया। इस पर राधा जी ने भी श्री दामा को पृथ्वी पर जन्म लेने का श्राप दे दिया। तब उस गोप ने भी राधा जी को यह श्राप दिया कि आपको भी मानव योनि में जन्म लेना पड़ेगा जहाँ गोकुल में श्री हरि के ही अंश महायोगी रायाण नामक एक वैश्य होंगे। आपका छाया रूप उनके साथ रहेगा। भूतल पर लोग आपको रायाण की पत्नी ही समझेंगे, श्रीहरि के साथ कुछ समय आपका विछोह रहेगा। जब भगवान् श्री कृष्ण के अवतार का समय आया तो उन्होंने राधा से कहा कि तुम शीघ्र ही वृष भानु के घर जन्म लो। श्री कृष्ण के कहने पर ही राधा जी व्रज में वृष भानु वैश्य की कन्या हुईं। राधा देवी अयोनिजा थीं, माता के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुई थीं। उनकी माता ने गर्भ में वायु को धारण कर रखा था। उन्होंने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया परन्तु वहाँ स्वेच्छा से राधा जी प्रकट हो गईं।
गोकुल में हर्ष और आनन्द :-  गोकुल में नन्द बाबा-यशोदा के यहाँ पुत्र जन्म के समाचार मिलते ही समस्त ब्रज मंडल के हर्ष और आनन्द का माहौल हो गया। गोकुल में नन्द बाबा ने पुत्र का जन्मोत्सव बड़े धूम-धाम से मनाया। ब्राह्मणों और याचकों को यथोचित गौओं तथा स्वर्ण, रत्न, धनादि का दान किया। कर्मकाण्डी ब्राह्मणों को बुला कर बालक का जाति कर्म संस्कार करवाया। पितरों और देवताओं की अनेक भाँति से पूजा-अर्चना की।
कृष्ण-बलराम का नामकरण संस्कार :- गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। यदुवंशियों के कुल पुरोहित श्री गर्गाचार्य थे। वे बड़े तपस्वी थे। वसुदेव जी की प्रेरणा से वे एक दिन नंदबाबा के गोकुल में आये। उन्हें देखकर नंद बाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए, उनके चरणों में प्रणाम किया। विधि पूर्वक आतिथ्य हो जाने पर नंद बाबा ने बड़ी ही मधुर वाणी में कहा कि भगवन आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं, आप ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। इसलिए मेरे इन दोनों बालकों के नामकरण आदि संस्कार आप ही कर दीजिए। नंदबाबा की बात सुनकर गर्गाचार्य ने एकांत में दोनों बालकों का नामकरण संस्कार कर दिया। पुत्र प्राप्त होने के पश्चात नंद बाबा द्वारा मथुरा में कंस को वार्षिक कर देने एवं वहीं पर वसुदेव जी से भेंट की। वसुदेव जी ने नंद बाबा को पुत्र प्राप्ति की बधाई दी और गोकुल में जल्दी ही कोई उत्पात होने की शंका को जताया। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा कि ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है। अतः वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।
पुतना का वध (Putna Vadh)पूतना वध :- उसने पूतना नाम की एक क्रूर राक्षसी को ब्रज में भेजा। पूतना ने राक्षसी वेष तज कर अति मनोहर नारी का रूप धारण किया और आकाश मार्ग से गोकुल पहुँच गई।  गोकुल में पहुँच कर वह सीधे नन्द बाबा के महल में गई और शिशु के रूप में सोते हुये श्री कृष्ण को गोद में उठा कर अपना दूध पिलाने लगी। उसकी मनोहरता और सुन्दरता ने यशोदा और रोहिणी को भी मोहित कर लिया इसलिये उन्होंने बालक को उठाने और दूध पिलाने से नहीं रोका। पूतना के स्तनों में हलाहल विष लगा हुआ था। अन्तर्यामी भगवान् श्री कृष्ण सब जान गये और वे क्रोध करके अपने दोनों हाथों से उसका कुच थाम कर उसके प्राण सहित दुग्धपान करने लगे। उनके दुग्धपान से पूतना के मर्म स्थलों में अति पीड़ा होने लगी और उसके प्राण निकलने लगे। वह चीख-चीख कर मुक्त करने का आग्रह करने लगी।  वह बार-बार अपने हाथ पैर पटकने लगी और उसकी आँखें फट गईं। उसका सारा शरीर पसीने में लथपथ होकर व्याकुल हो गया। वह बड़े भयंकर स्वर में चिल्लाने लगी। उसकी भयंकर गर्जना से पृथ्वी, आकाश तथा अन्तरिक्ष गूँज उठे। बहुत से लोग बज्रपात समझ कर पृथ्वी पर गिर पड़े। पूतना अपने राक्षसी स्वरूप को प्रकट कर धड़ाम से भूमि पर बज्र के समान गिरी, उसका सिर फट गया और उसके प्राण निकल गये।ईश्वर के आगे पाप एवं अविद्या नहीं टिक सकती। अतः पाप एवं अविद्या की मूर्ति पूतना का भगवान् ने खेल ही खेल में वध कर दिया।
पूतना पुरजन्म में दैत्यराज बाहुबली की पुत्री थी। जब भगवान् विष्णु ने दैत्यराज बाहुबली से वामन बनकर सब कुछ ले लिया तो उसके मस्तिष्क में विचार आया कि अगर वो भगवान् वामन की माँ होती तो उन्हें अपने स्तनों से जहर पिलाकर मार डालती। परमात्मा ने उसकी इच्छा की पूर्ति उसके स्तन से कालकूट विष के साथ उसके प्राण खीचकर कर दी।
जब यशोदा, रोहिणी और गोपियों ने उसके गिरने की भयंकर आवाज को सुना तब वे दौड़ी-दौड़ी उसके पास गईं। उन्होंने देखा कि बालक कृष्ण भयंकर राक्षसी पूतना की छाती पर लेटे हुए उसके स्तनपान कर रहे हैं। उन्होंने बालक को तत्काल उठा लिया और पुचकार कर छाती से लगा लिया। वे कहने लगींकि भगवान चक्रधर ने तेरी रक्षा की और आगे भी भगवान् गदाधर रक्षा करें। इसके पश्चात् गोप ग्वालों ने पूतना के अंगों को काट-काट कर गोकुल से बाहर ला कर लकड़ियों में रख कर जला दिया।
तृणावर्त का वध  (Trinavarta Vadh)ASSASSINATION OF TRANAVART तृणावर्त का वध :- After the killing of Pootna by Bhagwan Shri Krashn the fear of Kans grew many fold and he deputed Tranavart to kill Shri Krashn unaware of his real identity. Tranavart was a demon who could uproot mighty trees just by taking the shape of whirl wind-typhoon. He flew along with Bhagwan Shri Krashn in the sky. At this stage Shri Krashn started growing his weight which could not be balanced by Tranavart leading to calming down of the speed of the typhoon. Now the Almighty caught hold of the demon by his throat and released his soul.
वत्सासुर का वध (Killing of Vatsasura)कंस ढूंढ-ढूंढ कर नवजात शिशुओं का वध करवाने लगा। उसने दुष्ट राक्षस तृणावर्त को मथुरा भेजा। जब कंस को यह मालूम हुआ कि पूतना का वध हो गया है तो उसने श्री कृष्ण को मारने के लिए तृणावर्त नामक राक्षस को भेजा। तृणावर्त बवंडर का रूप धारण करके बड़े-बड़े पेड़ों को भी उखाड़ सकता था। तृणावर्त बवंडर बनकर गया और उसने बालकृष्ण को भी अपने साथ उड़ा लिया। इसके बाद श्रीकृष्ण ने अपना भार बहुत बढ़ा लिया, जिसे तृणावर्त भी संभाल नहीं पाया। जब बवंडर शांत हुआ तो बाल कृष्ण ने राक्षस का गला पकड़कर उसका वध कर दिया।
बकासुर का वध (Killing of Bakasur )KILLING VATSASUR वत्सासुर का वध : Vatsasur was a dreaded killer demon who used to live in the form of a bull. In his previous birth he was a disciple of Dev guru Vrahaspati, who cursed him for sitting before him by spreading his legs. Vrahaspati pardoned him later and blessed him to be released from the species by none other than the Almighty him self. Now the time of his release was ripe. he came to kill Bal Krashn. Shri Krashn caught hold of him through his horns and struck him on the ground, releasing his soul instantaneously. अबकी बार कंस ने वत्सासुर को भेजा। वत्सासुर एक बछड़े का रूप धारण करके श्री कृष्ण की गायों के साथ मिल गया। कान्हा उस समय गायों का चरा रहे थे। बाल कृष्ण ने उस बछड़े के रूप में दैत्य को पहचान लिया और उसके सींग पकड़ घुमाया और एक भूमि पर पटक दिया। यहीं उस दैत्य का वध हो गया।
अघासुर का वध (Killing of Aghasura)SLAYING OF VAKASUR बकासुर का वध :- Tranavart  was killed. Kans became even more insecure and called Vakasur another demon in the form of a giant egret to eliminate Bal Krashn. Bhagwan Shri Krashn was playing with other children when he approached them. Vakasur engulfed Bal Krashn but Shri Krashn tore his beak and killed him at once. वत्सासुर के बाद कंस ने बकासुर को भेजा। बकासुर एक बगुले का रूप धारण करके श्रीकृष्ण को मारने के लिए पहुंचा था। उस समय कान्हा और सभी बालक खेल रहे थे। तब बगुले ने कृष्ण को निगल लिया और कुछ ही देर बाद कान्हा ने उस बगुले को चीरकर उसका वध कर दिया।
यमलार्जुन का उद्धार (yamlarjun ka uddhar)RELINQUISHING AGHASUR अघासुर वध: Aghasur was the younger brother of Pootna and Vakasur. He was a dreaded killer demon. Even the demigods were afraid of him. He took the form of a giant python and opened his his mouth in the form of a cave. Bhagwan Shri Krashn and his play mates entered that cave. As soon as they entered the mouth of the demon he closed it. Bhagwan Shri Krashn stated increasing his body size to such and extent that the demon found it difficult to breath.  The demon died of suffocation and they came out of him safely. बकासुर के वध के बाद कंस ने कान्हा को मारने के लिए अघासुर को भेजा। अघासुर पूतना और बकासुर का छोटा भाई था। अघासुर बहुत ही भयंकर राक्षस था। देवता भी उससे डरते थे। अघासुर ने कृष्ण को मारने के लिए विशाल अजगर का रूप धारण किया। इसी रूप में अघासुर अपना मुंह खोलकर रास्ते में ऐसे पड़ गया जैसे कोई गुफा हो। उस समय श्रीकृष्ण और सभी बालक वहां खेल रहे थे। एक बड़ी गुफा देखकर सभी बालकों ने उसमें प्रवेश करने का मन बनाया। सभी ग्वाले और कृष्ण आदि उस गुफा में घुस गए। मौका पाकर अघासुर ने अपना मुंह बंद कर लिया। जब सभी को अपने प्राणों पर संकट नजर आया तो श्रीकृष्ण से सबको बचाने की प्रार्थना करने लगे। तभी कृष्ण ने अपना शरीर तेजी से बढ़ाना शुरू कर दिया। अब कान्हा ने भी विशाल शरीर बना लिया था, इस कारण अघासुर सांस भी नहीं ले पा रहा था। इसी प्रकार अघासुर का भी वध हो गया।
RELEASE OF YAMLARJUN कुबेर पुत्रों यमलार्जुन का उद्धार : Bhagwan Shri Krashn was very playful and naughty by nature. Mother Yashoda tied him with a giant a wooden pot for clearing husk. Bhagwan Shri Krashn dragged it to the the two trees in such a way that it got struck between them. Now he pulled the Ookhal leading to the breaking of the trees. These trees were the children of Kuber a Yaksh-demigods. and treasurer of demigods, who became a friend of Bhagwan Shiv as well. The two brothers Nal Kuber and Manigreev were released to join there family.  माता यशोदा द्वारा भगवान श्री कृष्ण को रस्सी द्वारा उलूख में बांधने से भगवान् का नाम दामोदर पड़ा।  उलूख से कुबेर के पुत्र जो नन्द भवन में यमल पेड़ बन कर खड़े हुए थे, उनका स्पर्श पाकर अपने निज स्वरूप में आ गए। एक बार माता यशोदा श्रीकृष्ण की शरारतों से परेशान हो गईं और उन्होंने कान्हा को ऊखल से बांध दिया, ताकि बालकृष्ण इधर-उधर न जा सके। जब माता यशोदा घर के दूसरों कामों में व्यस्त हो गई तब कृष्ण ऊखल को ही खींचने लगे। वहां आंगन में दो बड़े-बड़े वृक्ष भी लगे हुए थे, कृष्ण ने उन दोनों वृक्षों के बीच में ऊखल फंसा दिया और जोर लगाकर खींच दिया। ऐसा करते ही दोनों वृक्ष जड़ सहित उखड़ गए। वृक्षों के उखड़ते ही उनमें से दो यक्ष प्रकट हुए, जिन्हें यमलार्जुन के नाम से जाना जाता था।
ये दोनों यक्ष पूर्व जन्म कुबेर के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव थे। इन दोनों ने एक बार देवर्षि नारद का अपमान कर दिया था, इस कारण देवर्षि ने इन्हें वृक्ष बनने का शाप दे दिया था। श्रीकृष्ण ने वृक्षों को उखाड़कर इन दोनों यक्षों का उद्धार किया।
कंस-वध :- भगवान् श्री कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरा वासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भगवान् श्री कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।भगवान्  श्री कृष्ण के मथुरा आने पर भगवान् श्री कृष्ण  द्वारा धोबी के अभिमान को चूर किया जो की भगवान् राम के अवतार के समय माता सीता पर मिथ्या दोषरोपण का गुनहगार था। दर्जी एवं सुदामा माली से स्वागत प्राप्त कर उन्हें धन्य किया। कुब्जा द्वारा चन्दन प्राप्त कर उसे सर्वांग सुन्दरी बनाया।भगवान् श्री को जो भाव से थोड़ा भी देता है उसे वे सम्पूर्ण एश्वर्य प्रदान करते हैं।
कंस के शस्त्रागार में भी भगवान् श्री कृष्ण पहुंच गये और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद भगवान् श्री कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को भगवान् श्री कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्याग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। कंस द्वारा भगवान् श्री कृष्ण एवं बलराम को मारने की योजना को विफल करते हुए  भगवान् श्री ने कुवलियापीड़ हाथी को भी खेल ही खेल में ही मार गिराया।  दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर भगवान् श्री कृष्ण चाणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर भगवान् श्री कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में भगवान् श्री कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला।
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद भगवान् श्री कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि भगवान् श्री कृष्ण नेता हों, किन्तु भगवान् श्री कृष्ण ने महाराज उग्रसेन से कहा कि उन्होंने कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा था। वे ही यादवों के नेता थे;अत: सिंहासन पर वही बैठें।उन्होंने नीति पूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।
विद्याध्ययन :- कंस-वध तक भगवान् श्री कृष्ण का जीवन एक प्रकार से अज्ञातवास में व्यतीत हुआ। एक ओर कंस का आतंक था तो दूसरी ओर आकस्मिक आपत्तियों का कष्ट। अब इनसे छुटकारा मिलने पर उनके विद्याध्ययन की बात चली। वैसे तो वे दोनो भाई प्रतिभावान्, नीतिज्ञ तथा साहसी थे, परन्तु राजत्य-पंरपरा के अनुसार शास्त्रानुकूल संस्कार एवं शिक्षा-प्राप्ति आवश्यक थी। इसके लिए उन्हें गुरु संदीपन के आश्रम में भेजा गया। वहाँ पहुँच कर भगवान् श्री कृष्ण-बलराम ने विधिवत् दीक्षा ली और अन्य शास्त्रों के साथ धनुर्विद्या में विशेष दक्षता प्राप्त की। वहीं उनकी सुदामा ब्राह्मण से भेंट हुई, जो उनका गुरु-भाई हुआ।उन्होंने महज 32 दिनों में 64 विद्याएँ ग्रहण कर लीं। 
जरासंध की मथुरा पर चढ़ाई :- कंस की मृत्यु का समाचार पाकर मगध-नरेश जरासंध बहुत-कुद्ध हो गया। वह कंस का श्वसुर था। जरासंध अपने समय का महान् साम्राज्यवादी और क्रूर शासक था। उसने कितने ही छोटे-मोटे राजाओं का राज्य हड़प कर उन राजाओं को बंदी बना लिया था। जरासंध ने कंस को अपनी लड़कियाँ संभवत: इसीलिए ब्याही थी जिससे कि पश्चिमी प्रदेशों में भी उसकी धाक बनी रहे और उधर गणराज्य की शक्ति कमज़ोर पड़-जाय। कंस की प्रकृति भी जरासंध से बहुत मिलती-जुलती थी। शायद जरासंध के बल पर ही बैठा था। अपने जामातृ और सहायक का इस प्रकार वध होते देख जरासंध का कुद्ध होना स्वाभाविक ही था। अब उसने शूरसेन जनपद पर चढ़ाई करने का पक्का विचार कर लिया। शूरसेन और मगध के बीच युद्ध का विशेष महत्त्व है, इसीलिए हरिवंश आदि पुराणों में इसका वर्णन विस्तार से मिलता है।
जरासंध की पहली चढ़ाई :- जरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद पर चढ़ाई की। उसके सहायक में कारूप का राजा दंतवक (पूर्व जन्म का कुम्भकर्ण), चेदिराज, शिशुपाल, कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्ररुक्मी, काय अंशुमान तथा अंग, बंग, कोषल, दषार्ण, भद्र, त्रिगर्त आदि के राजा थे।
इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवनदेश का राजा भगदत्त, सौवीरराज गंधार का राजा सुबल नग्नजित् का मीर का राजा गोभर्द, दरद का राजा तथा कौरव राज दुर्योधन आदि भी उसके सहायक थे। मगध की विशाल सेना ने मथुरा पहुँच कर नगर के चारों फाटकों को घेर लिया।सत्ताईस दिनों तक जरासंध मथुरा नगर को घेरे पड़ा रहा, पर वह मथुरा का अभेद्य दुर्ग न जीत सका। संभवत: समय से पहले ही खाद्य-सामग्री के समाप्त हो जाने के कारण उसे निराश होकर मगध लौटना पड़ा। दूसरी बार जरासंध पूरी तैयारी से शूरसेन पहुँचा। यादवों ने अपनी सेना इधर-उधर फैला दी। युवक बलराम ने जरासंध का अच्छा मुक़ाबला किया। लुका-छिपी के युद्ध द्वारा यादवों ने मगध-सैन्य को बहुत छकाया। भगवान् श्री कृष्ण जानते थे कि यादव सेना की संख्या तथा शक्ति सीमित है और वह मगध की विशाल सेना का खुलकर सामना नहीं कर सकती। इसीलिए उन्होंने लुका-छिपी वाला आक्रमण ही उचित समझा। उसका फल यह हुआ कि जरासंध परेशान हो गया और हताश होकर ससैन्य लौट पड़ा।
जरासंध ने अठारह बार मथुरा पर चढ़ाई की। सत्रह बार यह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासक कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। भगवान् श्री कृष्ण बलदेव को जब यह ज्ञात हुआ कि जरासंध और कालयवन विशाल फ़ौज लेकर आ रहे हैं तब उन्होंने मथुरा छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाना ही बेहतर समझा।
महाभिनिष्क्रमण : अब समस्या थी कि कहाँ जाया जाय? यादवों ने इस पर विचार कर निश्चय किया कि सौराष्ट्र की द्वारकापुरी में जाना चाहिए। यह स्थान पहले से ही यादवों का प्राचीन केन्द्र था और इसके आस-पास के भूभाग में यादव बड़ी संख्या में निवास करते थे। ब्रजवासी अपने प्यारे कृष्ण को न जाने देना चाहते थे और भगवान् श्री कृष्ण स्वयं भी ब्रज को क्यों छोड़ते? पर आपत्तिकाल में क्या नहीं किया जाता? भगवान् श्री कृष्ण ने मातृभूमि के वियोग में सहानुभूति प्रकट करते हुए ब्रजवासियों को कर्त्तव्य का ध्यान दिलाया और कहा कि जरासंध के साथ उनका विग्रह हो गया था जो कि दु:ख की बात थी। उसके साधन प्रभूत थे। उसके पास वाहन, पदाति और मित्र भी थे। मथुरा एक छोटी जगह थी और प्रबल शत्रु उनके दुर्ग को नष्ट करना चाहता था। मथुरा निवासियों की संख्या में भी बहुत बढ़ गई थी। इस कारण भी प्रजा का इधर-उधर फैलना नितांत आवश्यक था।
इस प्रकार पूर्व निश्चय के अनुसार उग्रसेन, भगवान् श्री कृष्ण, बलराम आदि के नेतृत्व में यादवों ने बहुत बड़ी संख्या में मथुरा से प्रयाण किया और सौराष्ट्र की नगरी द्वारावती में जाकर बस गये।द्वारावती का जीर्णोद्वार किया गया और उससे बड़ी संख्या में नये मकानों का निर्माण हुआ।मथुरा के इतिहास में महाभिनिष्क्रमण की यह घटना बड़े महत्त्व की है। यद्यपि इसके पूर्व भी यह नगरी कम-से-कम दो बार ख़ाली की गई थी-पहली बार शत्रुध्न-विजय के उपरांत लवण के अनुयायिओं द्वारा और दूसरी बार कंस के अत्याचारों से ऊबे हुए यादवों द्वारा, पर जिस बड़े रूप में मथुरा इस तीसरे अवसर पर ख़ाली हुई वैसे वह पहले कभी नहीं हुई थी। इस निष्क्रमण के उपरांत मथुरा की आबादी बहुत कम रह गई। 
रुक्मणी श्री कृष्ण विवाह :- भगवान् श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का श्रवण करके रुक्मणी जी बहुत प्रभावित थीं। माता लक्ष्मी स्वयं रुक्मणी जी के रूप में प्रकट हुईं थीं। रामावतार में हुए कष्ट का निराकरण जो करना था। भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी बाल लीला करते हुये तृणावर्ण, अघासुर, अरिष्टासुर, केशी, व्योमासुर, चाणूर, मुष्टिक तथा कंस जैसे दुष्ट दैत्यों और राक्षसों का वध किया था। गौलोक से पृथ्वी पर पधारीं राधा जी तथा गोपियों के साथ रासलीला की। यमुना के भीतर घुसकर विषधर कालियाराज-पूर्व जन्म के तपस्वी ब्राह्मण, जो काक भुशुण्डी जी के श्रापवश नाग योनि को प्राप्त  हुए थेको नाथकर उनकी पूर्वजन्म की तपस्या का फल प्रदान किया। गोवर्धन पर्वत को उठा कर देवराज इन्द्र के अभिमान को चूर-चूर किया। अपने बड़े भाई बलराम जीजो पूर्वजन्म में छोटे भाई लक्ष्मण जी थेके द्वारा धेनुकासुर तथा प्रलंबसुर का वध करवा दिया। विश्वकर्मा के द्वारा द्वारिका नगरी का निर्माण करवाया। कालयवन को भस्म कर दिया। जरासंघ को सत्रह बार युद्ध में हराया। चूँकि जरासंघ के पाप का घड़ा अभी भरा नहीं था और उसे अभी जीवित रहना था, इसलिये अठारहवीं बार उससे युद्ध करते हुये रण को छोड़ कर द्वारिका चले गये। इसीलिये भगवान् श्री कृष्ण  का नाम रणछोड़ पड़ा। 
Shri krishna विदर्भराज के रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेस तथा रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र और एक पुत्री रुक्मणी जी थीं। रुक्मणी जी सर्वगुण सम्पन्न तथा अति सुन्दरी थी। उनके माता-पिता उसका विवाह भगवान् श्री कृष्ण के साथ करना चाहते थे, किन्तु रुक्म चाहता था कि उसकी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल जो कि पूर्वजन्म में रावण तथा हिरण्यकशिपु थाके साथ हो। अतः उसने रुक्मणी जी का टीका शिशुपाल के यहाँ भिजवा दिया। रुक्मणी जी ने भगवान् श्री कृष्ण को एक ब्राह्मण के हाथों संदेशा भेजा। भगवान् श्री कृष्ण ने संदेश लाने वाले ब्राह्मण से कहा कि जैसा प्रेम रुक्मणी जी उनसे करती थीं, वैसा ही प्रेम वे भी उनसे करते थे। उन्होंने कहा कि वे अवश्य ही राजकुमारी रुक्मणी को ब्याह कर लायेंगे। 
दो दिनों बाद ही रुक्मणी जी का शिशुपाल से विवाह होने वाला था। अतः भगवान् श्री कृष्ण ने अपने सारथी दारुक को तत्काल रथ लेकर आने की आज्ञा दी। आज्ञा पाकर दारुक रथ ले कर आ गया। उस रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहर्षक नाम के द्रुतगामी घोड़े जुते हुये थे। रथ में बैठकर श्री कृष्ण विदर्भ देश के लिये प्रस्थान कर गये। सन्ध्या तक वे विदर्भ देश की राजधानी कुण्डिलपुर पहुँच गये। वहाँ पर शिशुपाल की बारात पहुँच चुकी थी। बारात में शाल्व, जरासंघ, दन्तवक्र, विदूरथ, पौन्ड्रक आदि सहस्त्रों नरपति सम्मिलित थे और ये सभी भगवान् श्री कृष्ण तथा बलराम जी के विरोधी थे। उनको रुक्मणी जी को हर ले जाने लिये भगवान् श्री कृष्ण  के आने की सूचना भी मिल चुकी थी इसलिये वे भगवान् श्री कृष्ण को एक साधारण मानव मानते हुए  उनको रोकने के लिये अपनी पूरी सेना के साथ तैयार थे। इधर जब भगवान् श्री कृष्ण के अग्रज दाऊ बलराम जी  को जब सूचना मिली कि रुक्मणी जी को लाने के लिये भगवान् श्री कृष्ण अकेले ही प्रस्थान कर चुके हैं और वहाँ विरोधी पक्ष के सारे लोग वहाँ उपस्थित हैं, तो वे भी अपनी चतुरंगिणी सेना को लेकर द्रुतगति से चल पड़े और कुण्डिलपुर में पहुँच कर कृष्ण के साथ हो लिये।
रुक्मणी जी अपनी सहेलियों के साथ गौरी पूजन के लिये मन्दिर जा रही थीं। उनके साथ उनकी रक्षा के लिये शिशुपाल और जरासंघ के नियुक्त किये गये, अनेक महाबली दैत्य भी थे। रुक्मणी जी की उस टोली को देखते ही सारथी दारुक ने रथ को उनकी ओर तीव्र गति से दौड़ा दिया और पलक झपकते ही रथ पहरे के लिये घेरा बना कर चलते हुये दैत्यों को रौंदते हुये रक्मणी जी के समीप पहुँच गया। भगवान् श्री कृष्ण ने रुक्मणी जी को उनका हाथ पकड़ कर रथ के भीतर खींच लिया। रुक्मणी जी के रथ के भीतर पहुँचते ही दारुक ने रथ को उस ओर दौड़ा दिया जिधर अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ बलराम जी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। पहरेदार देखते ही रह गये।
रुक्मणी जी के हरण का समाचार सुनते ही जरासंघ और शिशुपाल अपने समस्त सहायक नरपतियों और उनकी सेनाओं के साथ भगवान् श्री कृष्ण के पास पहुँच गये। बलराम जी और उनकी चतुरंगिणी सेना पहले से ही तैयार खड़ी थी। दोनों ओर से बाणों की वर्षा होने लगी और घोर संग्राम छिड़ गया। बलराम जी ने अपने हल और मूसल से हाथियों की सेना को इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, जैसे घनघोर बादलों को वायु छिन्न-भिन्न कर देती है।भगवान् श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र ने विरोधियों की सेना में तहलका मचा दिया। किसी के हाथ किसी के पैर तो किसी के सिर कट कट कर गिरने लगे। शिशुपाल की पराजय हो गई।
शिशुपाल की पराजय होने पर रुक्मणी जी का बड़ा भाई रुक्म अत्यन्त क्रोधित होकर भगवान् श्री कृष्ण के सामने आ डटा। उसने प्रतिज्ञा की थी कि यदि मैं भगवान् श्री कृष्ण को मार कर अपनी बहन को न लौटा सका तो लौट कर नगर में नहीँ आउँगा। उसने भगवान् श्री कृष्ण पर तीन बाण छोड़े जिन्हें भगवान् श्री कृष्ण के बाणों ने वायु में ही काट दिया। फिर भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी बाणों से रुक्म के सारथी, रथ, घोड़े, धनुष और ध्वजा को काट डाला। रुक्म एक दूसरे रथ में फिर आया तो भगवान् श्री कृष्ण ने पुनः दूसरे रथ का भी वैसा ही हाल कर दिया। रुक्म ने गुलू, पट्टिस, परिध, ढाल, तलवार, तोमर तथा शक्ति आदि अनेक अस्त्र शस्त्रों का प्रहार किया पर भगवान् श्री कृष्ण ने उन समस्त शस्त्रास्त्रों को तत्काल काट डाला। रुक्म क्रोध से उन्मत्त होकर रथ से कूद पड़ा और तलवार लेकर भगवान् श्री कृष्ण की ओर दौड़ा। भगवान् श्री कृष्ण ने एक बाण मार कर उसके तलवार को काट डाला और एक लात मार कर उसे नीचे गिरा दिया। फिर उसकी उसकी छाती अपना पैर पर रख दिया और उसे मारने के लिये अपनी तीक्ष्ण तलवार उठा ली। रुक्मणी जी व्याकुल होकर भगवान् श्री कृष्ण  के चरणों पर गिर गई और अपने भाई के प्राण दान हेतु प्रार्थना करने लगी। रुक्मणी जी की प्रार्थना पर भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी तलवार नीचे कर ली और रुक्म को मारने का विचार त्याग दिया। इतना होने पर भी रुक्म भगवान् श्री कृष्ण का अनिष्ट करने का प्रयत्न कर रहा था। उसके इस कृत्य पर भगवान् श्री कृष्ण ने उसको उसी के दुपट्टे से बाँध दिया तथा उसके दाढ़ी-मूछ तथा केश तलवार से मूँड़ कर उसको रथ के पीछे बाँध दिया। बलराम जी ने रुक्म पर तरस खाकर उसे भगवान् श्री कृष्ण से छुड़वाया। अपनी पराजय पर दुःखी होता हुआ वह अपमानित तथा कान्तिहीन होकर वहाँ से चला गया। उसने अपनी प्रतिज्ञानुसार कुण्डलपुर में प्रवेश न करके भोजपुर नामक नगर बसाया।

इस भाँति भगवान् श्री कृष्ण रुक्मणी जी को लेकर द्वारिकापुरी आये जहाँ पर वसुदेव तथा उग्रसेन ने कुल पुरोहित बुला कर बड़ी धूमधाम के साथ दोनों का पाणिग्रहण संस्कार करवाया।
भगवान् श्री कृष्ण विवाह :- भगवान् श्री कृष्ण जब महज 8 साल के थे तब उनका राधा जी से विवाह भगवान् ब्रह्मा जी ने वन में कराया। वन में प्रवेश करते ही भगवान् श्री कृष्ण ने स्वयं को वयस्क बना लिया। कंस के बुलावे पर जब वे मथुरा  कुबड़ी मलिन जो कंस का अंगरास तैयार करती थी, ने भक्ति भाव से भगवान् श्री कृष्ण को तिलक लगाया और माला पहनाई। भगवान् ने प्रसन्न होकर उसकी ठोड़ी को अंगुली से सहारा दिया तो वो ऊपर उठती चली गयी और उसका कूबड़ खत्म हो गया। बाद में उसका भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र से विवाह  संपन्न हुआ।
पाण्डवों के लाक्षागृह से कुशलतापूर्वक बच निकलने पर सात्यिकी आदि यदुवंशियों को साथ लेकर भगवान् श्री कृष्ण उनसे मिलने के लिये इन्द्रप्रस्थ गये। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और कुन्ती ने उनका यथेष्ठ आदर सत्कार कर के उन्हें अपना अतिथि बना लिया। एक दिन अर्जुन को साथ लेकर भगवान् श्री कृष्ण आखेट के लिये गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे, वहाँ पर भगवान सूर्य की पुत्री कालिन्दी (-यमुना जी), भगवान् श्री कृष्ण को पति रूप में पाने की कामना से तप कर रही थी। कालिन्दी की मनोरथ पूर्ण करने के लिये भगवान् श्री कृष्ण ने उसके साथ विवाह कर लिया। फिर वे उज्जयिनी की राजकुमारी मित्रबिन्दा को स्वयंवर से वर लाये। उसके बाद कौशल के राजा नग्नजित के सात बैलों को एक साथ नाथ उनकी कन्या सत्या से पाणिग्रहण किया। तत्पश्चात् कैकेय की राजकुमारी भद्रा से भगवान् श्री कृष्ण का विवाह हुआ। भद्रदेश की राजकुमारी लक्ष्मणा का मनोरथ भी भगवान् श्री कृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने की थी अतः लक्ष्मणा को भी भगवान् श्री कृष्ण अकेले ही हर कर ले आये।सम्यन्तक मणि को प्राप्त करने के हेतु भगवान् श्री कृष्ण भगवान् ब्रह्मा जी के पुत्र रक्षराज जाम्बन्त जी की गुभा में प्रवेश कर गए। जामबंत जी युद्ध में हराया तो उन्होंने उन्हें भगवान् राम के रूप में पहचानकर अपने कन्या जाम्बवन्ति का विवाह उनसे कर दिया।
भगवान् श्री कृष्ण अपनी आठों रानियों रुक्मणी, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा के साथ द्वारिका में सुखपूर्वक रहे थे, कि एक दिन उनके पास देवराज इन्द्र ने आकर प्रार्थना की कि प्रागज्योतिषपुर के दैत्यराज भौमासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। भौमासुर भयंकर क्रूर तथा महा अहंकारी था और वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीनकर वह त्रिलोक विजयी हो गया था। उसने पृथ्वी के समस्त राजाओं की अति सुन्दरी कन्यायें हरकर बलि देने के लिए अपने यहाँ बन्दीगृह में डाल रखी थीं। उसका वध भगवान् श्री कृष्ण के सिवाय और कोई नहीं कर सकता था। अतः देवराज इन्द्र ने भगवान् श्री कृष्ण से उसके वध की प्रार्थना की।इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार कर के भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा को साथ ले कर गरुड़ पर सवार हो प्रागज्योतिषपुर पहुँचे। वहाँ पहुँच कर भगवान् श्री कृष्ण ने अपने पाञ्चजन्य शंख को बजाया। उसकी भयंकर ध्वनि सुन मुर दैत्य भगवान्  श्री कृष्ण से युद्ध करने आ पहुँचा। उसने अपना त्रिशूल गरुड़ पर चलाया।भगवान् श्री कृष्ण ने तत्काल दो बाण चला कर उस त्रिशूल के हवा में ही तीन टुकड़े दिया। इस पर उस दैत्य ने क्रोधित होकर अपनी गदा चलाई किन्तु भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी गदा से उसकी गदा तो भी तोड़ दिया। घोर युद्ध करते करते भगवान् श्री कृष्ण ने मुर दैत्य सहित मुर दैत्य छः पुत्र-ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण-का वध कर डाला। मुर दैत्य के वध हो जाने पर भौमासुर अपने अनेक सेनापतियों और दैत्यों की सेना को साथ लेकर युद्ध के लिये निकला। गरुड़ जी अपने पंजों और चोंच से दैत्यों का संहार करने लगे। भगवान् श्री कृष्ण ने बाणों की वर्षा कर दी और अन्ततः अपने सुदर्शन चक्र से भौमासुर के सिर को काट डाला।
इस प्रकार भौमासुर को मारकर भगवान्  श्री कृष्ण ने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर प्रागज्योतिष का राजा बनाया। भौमासुर के द्वारा हर कर लाई गईं सोलह हजार एक सौ राज कन्यायों को भगवान्  श्री कृष्ण ने मुक्त कर दिया। पूर्वजन्म में अष्टावक्र जी से श्रापित ने अप्सराओं ने, उन राज कन्याओं के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया था। उन सभी राज कन्याओं ने भगवान् श्री कृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। उन सभी को भगवान् श्री कृष्ण अपने साथ द्वारिका पुरी ले आये।उसी श्राप के फलस्वरूप भगवान् श्री कृष्ण के गौलोक पधारने पर अर्जुन भगवान् की उन पत्नियों की रक्षा नहीं कर पाये और भील और दस्यु उन्हें लूटकर ले गए।
भगवान् श्री कृष्ण का जाम्बवन्ति और सत्यभामा से विवाह :- एक बार सत्राजित ने भगवान सूर्य की उपासना करके उनसे स्यमन्तक नाम की मणि प्राप्त की। उस मणि का प्रकाश भगवान सूर्य के समान ही था। एक दिन भगवान् श्री कृष्ण जब चौसर खेल रहे थे तभी सत्राजित उस मणि को पहन कर उनके पास आया। दूर से उसे आते देख कर यादवों ने भगवान् श्री कृष्ण से कहा कि उन के दर्शनों के लिये साक्षात् सूर्य भगवान या अग्निदेव चले आ रहे थे।  इस पर भगवान् श्री कृष्ण ने हँस कर कहा कि आगन्तुक सत्राजित था और उसने सूर्य भगवान से प्राप्त स्यमन्तक मणि को पहन रखा थी जिसके कारण वह तेजोमय हो रहा था।तभी सत्राजित वहाँ आ पहुँचा। सत्राजित को देखकर उन यादवों ने उससे कहा कि वो उस अलौकिक दिव्य मणि मणि महाराज उग्रसेन को दे दे। किन्तु सत्राजित यह बात सुन कर बिना कुछ उत्तर दिये ही वहाँ से उठ कर चला गया। सत्राजित ने स्यमन्तक मणि को अपने घर के एक देव मन्दिर में स्थापित कर दिया। वह मणि नित्य उसे आठ भार सोना देती थी। जिस स्थान में वह मणि होती थी वहाँ के सारे कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते थे।
सत्राजित का भाई प्रसेनजित उस मणि को पहन कर घोड़े पर सवार हो आखेट के लिये गया। वन में प्रसेनजित तथा उसके घोड़े को एक सिंह ने मार डाला और वह मणि छीन ली। उस सिंह को ऋक्षराज जाम्बवन्त ने मारकर वह मणि प्राप्त कर ली और अपनी गुफा में चले गए। जाम्बवन्त जी ने उस मणि को अपने बालक का खिलौना बना दिया।
जब प्रसेनजित लौट कर नहीं आया तो सत्राजित ने समझा कि मेरे भाई को भगवान् श्री कृष्ण ने मारकर मणि छीन ली है। भगवान् श्री कृष्ण जी पर चोरी के सन्देह की बात पूरे द्वारिकापुरी में फैल गई। जब भगवान् श्री कृष्णचन्द्र ने सुना कि मुझ पर व्यर्थ में चोरी का कलंक लगा है तो वे इस कलंक को धोने के उद्देश्य से नगर के प्रमुख यादवों का साथ ले कर रथ पर सवार हो स्यमन्तक मणि की खोज में निकले। वन में उन्होंने घोड़ा सहित प्रसेनजित को मरा हुआ देखा पर मणि का कहीं अता-पता नहीं था। वहाँ निकट ही सिंह के पंजों के चिन्ह थे। वे सिंह के पदचिन्हों के सहारे आगे बढ़े तो उन्हें सिंह भी मरा हुआ मिला और वहाँ पर रीछ के पैरों के चिन्ह मिले जो कि एक गुफा तक गये थे। जब वे उस भयंकर गुफा के निकट पहुँचे तब श्री कृष्ण ने यादवों से कहा कि वे वहीं रुकें। उन्होंने ने गुफा में प्रवेश कर मणि का पता  निश्चय किया। उन्होंने देखा कि उस प्रकाशवान मणि को रीछ का एक बालक लिये हुये खेल रहा है। भगवान् श्री कृष्ण ने उस मणि को वहाँ से उठा लिया। यह देख कर जाम्बवन्त जी अत्यन्त क्रोधित होकर श्री कृष्ण को मारने के लिये झपटे। जाम्बवन्त और भगवान् श्री कृष्ण में भयंकर युद्ध हुआ।
जब भगवान् श्री कृष्ण जी गुफा से वापस नहीं लौटे तो सारे यादव उन्हें मरा हुआ समझ कर बारह दिन के उपरान्त वहाँ से द्वारिका पुरी वापस आ गये तथा समस्त वत्तान्त वसुदेव और देवकी से कहा। वसुदेव और देवकी व्याकुल होकर महामाया दुर्गा की उपासना करने लगे। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर दुर्गा देवी ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा पुत्र तुम्हें अवश्य मिलेगा।
भगवान् श्री कृष्ण और जाम्बवन्त जी दोनों ही पराक्रमी थे। युद्ध करते हुये गुफा में अट्ठाइस दिन व्यतीत हो गये। भगवान श्री कृष्ण की मार से महाबली जाम्बवन्त जी की नस टूट गई। वे अत्यन्त व्याकुल हो उठे और अपने स्वामी भगवान् श्री रामचन्द्र जी का स्मरण करने लगे। जाम्बवन्त के द्वारा भगवान् श्री राम के स्मरण करते ही भगवान् श्री कृष्ण ने भगवान् श्री रामचन्द्र के रूप में उन्हें दर्शन दिये। जाम्बवन्त जी उनके चरणों में गिर पड़े और कहा कि वे समझ गए है कि परमात्मा ने यदुवंश में अवतार लिया है। भगवान् श्री कृष्ण ने याद दिलाया कि जाम्बवन्त जी ने रामावतार में  रावण के वध हो जाने के पश्चात्, उनसे युद्ध करने की इच्छा व्यक्त की थी और उन्होंने उनसे कहा था कि वे जाम्बवन्त जी की इच्छा अवश्य पूरी करेंगे। जाम्बवन्त जी ने भगवान् श्री कृष्ण की अनेक प्रकार से स्तुति की और अपनी कन्या जाम्बवन्ती का विवाह उनसे कर दिया।
भगवान् श्री कृष्ण जाम्बवन्ती को साथ लेकर द्वारिका पुरी पहुँचे। उनके वापस आने से द्वारिका पुरी में चहुँ ओर प्रसन्नता व्याप्त हो गई।भगवान् श्री कृष्ण ने सत्राजित को बुलवाकर उसकी मणि उसे वापस कर दी। सत्राजित अपने द्वारा भगवान् श्री कृष्ण पर लगाये गये झूठे कलंक के कारण अति लज्जित हुआ और पश्चाताप करने लगा। प्रायश्चित के रूप में उसने अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह भगवान् श्री कृष्ण के साथ कर दिया और वह मणि भी उन्हें दहेज में दे दी। किन्तु शरणागत वत्सल भगवान् श्री कृष्ण ने उस मणि को स्वीकार न करके पुनः सत्राजित को वापस कर दिया।
जरासंघ वध :-  धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया तथा अपने चारों भाइयों को दिग्विजय करने की आज्ञा दी। चारों भाइयों ने चारों दिशा में जाकर समस्त नरपतियों पर विजय प्राप्त की किन्तु जरासंघ को न जीत सके। इस पर श्री कृष्ण, अर्जुन तथा भीमसेन ब्राह्मण का रूप धर कर मगध देश की राजधानी में जरासंघ के पास पहुँचे। जरासंघ ने इन ब्राह्मणों का यथोचित आदर सत्कार करके पूछा की वो उनकी क्या सेवा कर सकता था ?
जरासंघ के इस प्रकार कहने पर भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि वे उससे कुछ याचना करने आये थे। उन्होंने कहा कि जरासंध याचकों को कभी विमुख नहीं होने देता । राजा हरिश्चन्द्र ने विश्वामित्र जी की याचना करने पर, उन्हें सर्वस्व दे डाला था। राजा बलि से याचना करने पर उन्होंने त्रिलोक का राज्य दे दिया था। फिर उससे यह अपेक्षा नहीं थी कि वो उन्हें निराश करेगा ! उन्होंने कहा कि गौ, धन, रत्नादि की याचना नहीं करते, अपितु द्वन्द्व युद्ध की इच्छा रखते थे।
श्री कृष्ण के इस प्रकार याचना करने पर जरासंघ समझ गया कि छद्मवेष में ये कृष्ण, अर्जुन तथा भीमसेन हैं। उसने कहा कि उसे उनकी याचना स्वीकार है। उसने भगवान् श्री कृष्ण से कहा कि वो पराजित होकर रण छोड़ कर भाग चुके, भगोड़े तथा पीठ दिखाने वाले के साथ युद्ध करना पसन्द नहीं करता था। अर्जुन के लिए कहा कि भी दुबले-पतले और कमजोर थे तथा वृहन्नला के रूप में नपुंसक भी रह चुके थे। इसलिये वो भीम जो कि उसे अपने समान बलवान और बलिष्ठ लगते थे, के साथ वो अवश्य  युद्ध करेगा।
इसके पश्चात् दोनों ही अपना-अपना गदा सँभाल कर युद्ध के मैदान में डट पड़े। दोनों ही महाबली तथा गदायुद्ध के विशेषज्ञ थे। पैंतरे बदल-बदल कर युद्ध करने लगे। कभी भीमसेन का प्रहार जरासंघ को व्याकुल कर देती तो कभी जरासंघ चोट कर जाता। सूर्योदय से सूर्यास्त तक दोनों युद्ध करते और सूर्यास्त के पश्चात् युद्ध विराम होने पर मित्रभाव हो जाते। इस प्रकार सत्ताइस दिन व्यतीत हो गये और दोनों में से कोई भी पराजित न हो सका। अट्ठाइसवें दिन प्रातः भीमसेन भगवान् श्री कृष्ण से बोले कि जनार्दन! जरासंघ तो पराजित ही नहीं हो रहा। अब वो ही उस दुष्ट को पराजित करने का कोई उपाय बतायें ! भीम की बात सुनकर भगवान् श्री कृष्ण ने कहा  कि जरासंघ अपने जन्म के समय दो टुकड़ों में उत्पन्न हुआ था और जरा नाम की राक्षसी ने उन दोनों टुकड़ों को जोड़ दिया था। इसलिये युद्ध करते समय जैसे ही वे संकेत करें, भीम उसके शरीर को दो टुकड़ों में चीर कर विपरीत दिशाओं में फैंक दें।
जनार्दन की बातों को ध्यान में रख कर भीमसेन जरासंघ से युद्ध करने लगे। युद्ध करते-करते दोनों की गदाओं के टुकड़े-टुकड़े हो गये, तब वे मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में जैसे ही भीम ने जरासंघ को भूमि पर पटका, भगवान् श्री कृष्ण ने एक तिनके को बीच से चीरकर भीमसेन को संकेत किया। उनका संकेत समझ कर भीम ने अपने एक पैर से जरासंघ के एक टांग को दबा दिया और उसकी दूसरी टांग को दोनों हाथों से पकड़ कर कंधे से ऊपर तक उठा दिया, जिससे जरासंघ के दो टुकड़े हो गये। भीम ने उसके दोनों टुकड़ों को अपने दोनों हाथों में लेकर पूरी शक्ति के साथ विपरीत दिशाओं में फेंक दिया और इस प्रकार महाबली जरासंघ का वध हो गया।
शिशुपाल वध :- जरासंघ का वध करके श्री कृष्ण, अर्जुन और भीम इन्द्रप्रस्थ लौट आए एवं धर्मराज युधिष्ठिर से सारा वृत्तांत कहा, जिसे सुनकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुये। तत्पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारी शुरू करवा दी। उस यज्ञ के ऋतिज आचार्य होता थे।यज्ञ को सफल बनाने के लिये भगवान वेद व्यास, भारद्वाज, सुनत्तु, गौतम, असित, वशिष्ठ, च्यवन, कण्डव, मैत्रेय, कवष, जित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिन, क्रतु, पैल, पाराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतहोत्र, मधुद्वन्दा, वीरसेन, अकृतब्रण आदि, ऋषि, मह्रिषी, मुनि उपस्थित थे। सभी देशों के राजाधिराज भी वहाँ पधारे।
ऋतिजों ने शास्त्र विधि से यज्ञ-भूमि को सोने के हल से जुतवा कर धर्मराज युधिष्ठिर को दीक्षा दी। धर्मराज युधिष्ठिर ने सोमलता का रस निकालने के समय यज्ञ की भूल-चूक देखने वाले सद्पतियों की विधिवत पूजा की। अब समस्त सभासदों में इस विषय पर विचार होने लगा कि सब से पहले किस देवता की पूजा की जाये। तब सहदेव जी उठ कर बोले :
श्री कृष्ण देवन के देव, उन्हीं को सब से आगे लेव; ब्रह्मा शंकर पूजत जिनको, पहिली पूजा दीजै उनको।
अक्षर ब्रह्म कृष्ण यदुराई, वेदन में महिमा तिन गाई; अग्र तिलक यदुपति को दीजै, सब मिलि पूजन उनको कीजै॥ 
परमज्ञानी सहदेव जी के वचन सुनकर सभी सत्पुरुषों ने साधु-साधु! कह उठे। भीष्म पितामह ने स्वयं अनुमोदन करते हुये सहदेव के कथन की प्रशंसा की। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने शास्त्रोक्त विधि से भगवान श्री कृष्ण का पूजन आरम्भ किया। चेदिराज शिशुपाल जो कि पूर्वजन्म रावण, हिरण्यकशिपु तथा वैकुण्ठलोक में भगवान् विष्णु का द्वारपाल जय था, अपने आसन पर बैठा हुआ यह सब दृश्य देख रहा था। सहदेव के द्वारा प्रस्तावित तथा भीष्म के द्वारा समर्थित श्री कृष्ण की अग्र पूजा को वह सहन न कर सका और उसका हृदय क्रोध से भर उठा। वह उठ कर खड़ा हो गया और सभी आगन्तुक मेहमानों से बोला कि क्या कालवश सभी की मति मारी गई थी। क्या बालक सहदेव से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति उस सभा में उपस्थित नहीं था ? उसने पूछा कि एक बालक की हाँ में हाँ मिला कर अयोग्य व्यक्ति की पूजा स्वीकार क्यों और कैसे कर ली गई ? क्या कृष्ण से आयु, बल तथा बुद्धि में कोई भी बड़ा नहीं वहाँ उपस्थित नहीं था ?बड़े-बड़े त्रिकालदर्शी ऋषि-महर्षि यहाँ पधारे थे। बड़े-बड़े राजा-महाराजा यहाँ पर उपस्थित थे। क्या एक गाय चराने वाल ग्वाले के समान कोई और यहाँ नहीं था ? क्या कौआ हविश्यान्न ले सकता था ? क्या गीदड़ सिंह का भाग प्राप्त कर सकता था ? न तो कृष्ण का कोई कुल  था और न ही जाति, न ही इसका कोई वर्ण था। राजा ययाति के शाप के कारण राजवंशियों ने यदुवंश को वैसे ही बहिष्कृत कर रखा था। कृष्ण जरासंघ के डर से मथुरा त्याग कर समुद्र में जा छिपा था। फिर भला वो किस प्रकार अग्रपूजा पाने का अधिकारी बन सकता था ? इस प्रकार शिशुपाल जगत के स्वामी भगवान् श्री कृष्ण को गाली देने लगा। उसके इन कटु वचनों की निन्दा करते हुये अर्जुन और भीमसेन अनेक राजाओं के साथ उसे मारने के लिये उद्यत हो गये किन्तु भगवान् श्री कृष्णचन्द्र ने उन सभी को रोक दिया। भगवान् श्री कृष्ण के अनेक भक्त अनिष्ट की आशंका से सभा छोड़ कर चले गये। वे भगवान् श्री कृष्ण की निन्दा नहीं सुन सकते थे।
जब शिशुपाल श्री कृष्ण को एक सौ गाली दे चुका, तब भगवान् श्री कृष्ण ने उसे चेतावनी दी कि यदि उसके मुँख से एक भी अपशब्द निकला तो उसके प्राण नहीं बचेंगे। उन्होंने उसके एक सौ अपशब्दों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा की थी, इसी लिये वो तब तक तक  सुरक्षित था। भगवान् श्री कृष्ण के इन वचनों को सुन कर सभा में उपस्थित शिशुपाल के सारे समर्थक भय से थर्रा गये, किन्तु शिशुपाल का विनाश समीप था। अतः उसने काल के वश होकर अपनी तलवार निकालते हुये भगवान् श्री कृष्ण को फिर से गाली दी। शिशुपाल के मुख से अपशब्द के निकलते ही भगवान् श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र चला दिया और पलक झपकते ही शिशुपाल का सिर कट कर गिर गया। उसके शरीर से एक ज्योति निकल कर भगवान् श्री कृष्णचन्द्र के भीतर समा गया और वह पापी शिशुपाल, जो तीन जन्मों से भगवान से बैर भाव रखते आ रहा था, परमगति को प्राप्त हो गया। यह भगवान विष्णु का वही द्वारपाल था जिसे कि सनकादि मुनियों ने शाप दिया था। वे जय और विजय अपने पहले जन्म में हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष, दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण तथा अंतिम तीसरे जन्म में शिशुपाल और दन्तवक्र बने एवं भगवान् श्री कृष्ण के हाथों अपने परमगति को प्राप्त होकर पुनः विष्णुलोक लौट गये।
भगवान् श्री कृष्ण और आदिदेव महादेव का युद्ध :- प्रह्लाद जी के पौत्र दानवीर दैत्यराज बलि के सौ प्रतापी पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़ा वाणासुर था। वाणासुर ने भगवान् शंकर की बड़ी कठोर तपस्या की। भोलेनाथ उसकी  तपस्या से प्रसन्न हो गए और उसे सहस्त्र बाहु होने का तथा अपार बल का वरदान दिया। सहस्त्र बाहु के अपार बल के कारण कोई भी उससे युद्ध नहीं करता था। इससे वाणासुर अहंकारी हो गया। बहुत काल व्यतीत हो जाने के पश्चात् भी जब उससे किसी ने युद्ध नहीं किया, तो वह भगवान् शंकर के पास आकर बोला कि उसकी युद्ध करने की प्रबल इच्छा थी, जबकि कोई भी उससे युद्ध करना नहीं चाहता था। उसने भोलेनाथ से प्रार्थना की कि वो ही उससे युद्ध करलें। वाणासुर उनका परमभक्त था। इसलिये उन्होंने कहा कि उसके हाथों को काटने वाला और युद्ध में पराजित करने वाला उसे अवश्य ही मिलेगा और वो ही उसका अहंकार भी तोड़ेगा। उन्होंने उसे चेताया कि  उसके महल की पताका के गिरने के साथ ही उसका मान-मर्दन तय था।  
वाणासुर की उषा नाम की एक कन्या थी। उषा ने स्वप्न में भगवान् श्री कृष्ण के पौत्र तथा प्रद्युम्न जी (-कामदेव के अवतार) के पुत्र अनिरुद्ध को देखा और उन पर मोहित हो गई। उसने अपने स्वप्न की बात अपनी सखी चित्रलेखा को बताया। चित्रलेखा ने अपने योगबल से अनिरुद्ध का चित्र बनाया और उषा को दिखाकर पूछा कि क्या उसने अनिरुद्ध जी को ही स्वप्न में देखा था? उषा ने स्वीकार किया कि अनिरुद्ध जी ने ही उसका चित्त हर लिया था। उसने कहा कि वो उनके बिना नहीं रह सकती थी। चित्रलेखा ने योगमाया से द्वारिका जाकर, सोते हुये अनिरुद्ध जी को पलंग सहित उठाकर उषा के महल में पहुँचा दिया। नींद खुलने पर अनिरुद्ध जी ने स्वयं को एक नये स्थान पर पाया और देखा कि उसके पास एक अनिंद्य सुन्दरी बैठी थी। अनिरुद्ध जी के पूछने पर उषा ने बताया कि वह वाणासुर की पुत्री थी और अनिरुद्ध जी को पति रूप में पाने की कामना रखती थी। अनिरुद्ध जी भी उषा पर मोहित हो गये और वहीं उसके साथ महल में ही रहने लगे।
पहरेदारों को सन्देह हो गया कि उषा के महल में अवश्य कोई बाहरी मनुष्य आ पहुँचा था। उन्होंने वाणासुर के समक्ष अपना संदेह प्रकट किया। उसी समय वाणासुर ने अपने महल की ध्वजा गिरी हुई देखी। उसे निश्चय हो गया कि उसका शत्रु उषा के महल में प्रवेश कर गया था। वह अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर उषा के महल में पहुँचा। उसने देखा कि उसकी पुत्री उषा के समीप पीताम्बर वस्त्र पहने बड़े बड़े नेत्रों वाला एक साँवला सलौना पुरुष बैठा हुआ है। वाणासुर ने क्रोधित हो कर अनिरुद्ध जी को युद्ध के लिये ललकारा। उसकी ललकार सुनकर अनिरुद्ध जी भी युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गये और उन्होंने लोहे के एक भयंकर मुद्गर को उठा कर उसी के द्वारा वाणासुर के समस्त अंगरक्षकों को मार डाला। वाणासुर और अनिरुद्ध जी में घोर युद्ध होने लगा। जब वाणासुर ने देखा कि अनिरुद्ध जी किसी भी प्रकार से उसके काबू में नहीं आ रहे हैं, तो उसने नागपाश से उन्हें बाँधकर बन्दी बना लिया।
इधर द्वारिका पुरी में अनिरुद्ध जी की खोज होने लगी और उनके न मिलने पर वहाँ पर शोक और रंज छा गया। तब देवर्षि नारद ने वहाँ पहुँच कर अनिरुद्ध जी का सारा वृत्तांत कहा। इस पर भगवान् श्री कृष्ण, बलराम जी , प्रद्युम्न, सात्यिकी, गद, साम्ब आदि सभी वीर चतुरंगिणी सेना के साथ लेकर वाणासुर के नगर शोणितपुर पहुँचे और आक्रमण करके वहाँ के उद्यान, परकोटे, बुर्ज आदि को नष्ट कर दिया। आक्रमण का समाचार सुन वाणासुर भी अपनी सेना को साथ लेकर आ गया। वाणासुर की सहायता के लिये भगवान् शंकर भी भगवान् कार्तिकेय तथा भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस, कुष्माण्ड आदि की सेना को लेकर रणभूमि में आ गये। श्री बलराम जी कुम्भाण्ड तथा कूपकर्ण राक्षसों से जा भिड़े; अनिरुद्ध जी भगवान् कार्तिकेय के साथ युद्ध करने लगे और भगवान् श्री कृष्ण वाणासुर और भगवान् शंकर के सामने आ डटे। घनघोर संग्राम होने लगा। चहुँओर बाणों की बौछार हो रही थी। भगवान् श्री कृष्ण के तीक्ष्ण बाणों से आहत हो भगवान् शंकर की सेना भाग निकली।
भगवान् शंकर के समस्त अस्त्रों को भगवान् श्री कृष्ण ने ब्रह्मास्त्र से काट डाला। इस पर भगवान् शंकर ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया।भगवान् श्री कृष्ण ने ब्रह्मा्त्र को वायव्यास्त्र से, पर्वतास्त्र को आग्नेयास्त्र से, परिजन्यास्त्र तथा पशुपत्यास्त्र को नारायणास्त्र से नष्ट कर दिया। अब भगवान् श्री कृष्ण ने भोलेनाथ को स्तब्ध कर दिया। वाणासुर भगवान् श्री कृष्ण को देखता तो उनमें भगवान् शिव और भगवान् शिव को देखता तो उनमें भगवान्  नजर आते। भगवान् श्री कृष्ण ने वाणासुर के सहस्त्र हाथों में से केवल चार हाथों को छोड़कर शेष सभी को काट दिया। अन्ततः भगवान् शंकर सचेत हुए तो उन्होंने वाणासुर से कहा कि "भगवान्  कृष्ण ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। ये मेरे भी ईश्वर हैं। तू इनकी शरण में चला जा।" भगवान्  शंकर की बात सुनकर वाणासुर भगवान् श्री कृष्ण के चरणों में गिर पड़ा और उनकी स्तुति कर क्षमा प्रार्थना करने लगा। वाणासुर को अपनी शरण में आया जानकर शरणागत वत्सल भगवान् श्री कृष्ण ने उसे अभयदान दे दिया। उन्होंने वाणासुर से कहा कि "मुझमें और भगवान् शिव में किसी प्रकार का कोई भेद नहीं है। वे मुझमें हैं  और मैं उनमें हूँ।" वाणासुर ने अपनी कन्या उषा का अनिरुद्ध जी  के साथ पाणिग्रहण संस्कार कर दिया।
भगवान् अपने अवतार में एक साथ 4 मूर्तियों में प्रकट होते हैं। यथा श्री कृष्ण, बलराम जी, प्रद्युम्न जी और अनिरुद्ध जी। श्री राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न।
भगवान् श्री कृष्ण की तीसरी मूर्ति प्रद्युम्न जी का जन्म : श्री शुकदेव जी बोले कि हे परीक्षित, भगवान् शंकर के श्राप से जब कामदेव भस्म हो गए तो उनकी पत्नी रति अति व्याकुल होकर पति वियोग में उन्मत्त सी हो गईं। उन्होंने अपने पति की पुनः प्राप्ति के लिये देवी माँ पार्वती और भगवान् शंकर की आराधना की। माँ पार्वती जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि उनका पति यदुकुल में भगवान्  श्री कृष्ण के पुत्र के रूप में जन्म लेगा और उन्हें वह शम्बासुर के यहाँ मिलेगा। इसीलिये रति शम्बासुर के घर मायावती के नाम से दासी का कार्य करने लगीं।
कामदेव रुक्मणी के गर्भ में स्थित हो गये। समय आने पर रुक्मणी ने एक अति सुन्दर बालक को जन्म दिया। उस बालक के सौन्दर्य, शील, सद्गुण आदि सभी भगवान् श्री कृष्ण के ही समान थे। जब शम्बासुर को पता चला कि मेरा शत्रु यदुकुल में जन्म ले चुका है, तो वह वेश बदल कर प्रसूतिकागृह से उस दस दिन के शिशु को हर लाया और समुद्र में डाल दिया। समुद्र में उस शिशु को एक मछली निगल गई और उस मछली को एक मगरमच्छ ने निगल लिया। वह मगरमच्छ एक मछुआरे के जाल में आ फँसा जिसे कि मछुआरे ने शम्बासुर की रसोई में भेज दिया। जब उस मगरमच्छ का पेट फाड़ा गया तो उसमें से अति सुन्दर बालक निकला। उसको देख कर शम्बासुर की दासी मायावती के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह उस बालक को पालने लगी। उसी समय देवर्षि नारद मायावती के पास पहुँचे और बोले कि हे मायावती! यह तेरा ही पति कामदेव है। इसने यदुकुल में जन्म लिया है और इसे शम्बासुर समुद्र में डाल आया था। तू इसका यत्न से लालन-पालन कर। इतना कह कर नारद जी वहाँ से चले गये। उस बालक का नाम प्रद्युम्न रखा गया। थोड़े ही काल में प्रद्युम्न जी युवा हो गए। प्रद्युम्न जी का रूप लावण्य इतना अद्भुत था कि वे साक्षात् भगवान् श्री कृष्णचन्द्र ही प्रतीत होते थे। रति उन्हें बड़े भाव और लजीली दृष्टि से देखती थी। तब प्रद्युम्न जी बोले कि तुमने माता जैसा मेरा लालन-पालन किया है फिर तुममें ऐसा परिवर्तन क्यों देख रहा हूँ ? तब रति ने कहा :
पुत्र नहीं तुम पति हो मेरे, मिले कन्त शम्बासुर प्रेरे; मारौ नाथ शत्रु यह तुम्हरौ, मेटौ दुःख देवन कौ सिगरौ।
यह कह कर मायावती रति ने उन्हें महा विद्या प्रदान किया तथा धनुष बाण, अस्त्र-शस्त्र आदि सभी विद्याओं में निपुण कर दिया। युद्ध विद्या में प्रवीण हो जाने पर प्रद्युम्न अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित होकर शम्बासुर की सभा में गये। शम्बासुर उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ और सभासदों से कहा कि इस बालक को मैंनें पाल पोष कर बड़ा किया है। इस पर प्रद्युम्न बोले कि अरे दुष्ट! मैं तेरा बालक नहीं वरन् तेरा वही शत्रु हूँ जिसको तूने समुद्र में डाल दिया था। अब तू मुझसे युद्ध कर।
प्रद्युम्न जी के इन वचनों को सुनकर शम्बासुर ने अति क्रोधित होकर उन पर अपने बज्र के समान भारी गदा का प्रहार किया। प्रद्युम्न ने उस गदा को अपनी गदा से नष्ट कर दिया। तब वह असुर अनेक प्रकार की माया रच कर युद्ध करने लगा। किन्तु प्रद्युम्न जी ने महा विद्या के प्रयोग से उसकी माया को नष्ट कर दिया और अपने तीक्ष्ण तलवार से शम्बासुर का सिर काट कर पृथ्वी पर डाल दिया। उनके इस पराक्रम को देख कर देवतागणों ने उनकी स्तुति कर आकाश से पुष्प वर्षा की। फिर मायावती रति प्रद्युम्न को आकाश मार्ग से द्वारिकापुरी ले आई। गौरवर्ण पत्नी के साथ साँवले प्रद्यम्न जी की शोभा अवर्णनीय थी।
वे नव-दम्पति भगवान् श्री कृष्ण के अन्तःपुर में पहुँचे। रुक्मणी सहित वहाँ की समस्त स्त्रियाँ साक्षात् भगवान् श्री कृष्ण के प्रतिरूप प्रद्युम्न जी को देखकर आश्चर्यचकित रह गये। वे सोचने लगीं कि यह नर श्रेष्ठ किसका पुत्र है? जाने क्यों इसे देख कर मेरा वात्सल्य उमड़ रहा है। मेरा बालक भी बड़ा होकर इसी के समान होता किन्तु उसे तो न जाने कौन प्रसूतिका गृह से ही उठा कर ले गया था। उसी समय भगवान् श्री कृष्ण भी अपने माता-पिता देवकी और वसुदेव तथा भाई बलराम के साथ वहाँ आ पहुँचे। भगवान् श्री कृष्ण तो अन्तर्यामी थे।उन्हें नर लीला करनी थी; इसलिये वे बालक के विषय में अनजान बने रहे। तब देवर्षि नारद ने वहाँ आकर सभी को प्रद्युम्न जी की आद्योपान्त कथा सुनाई और वहाँ उपस्थित समस्त जनों के हृदय में हर्ष व्याप्त गया।
द्वारका में जीवन की जटिल समस्याओं में फंस कर भी भगवान् श्री कृष्ण ब्रजभूमि, नंद-यशोदा तथा साथ में खेले गोप-गोपियों को भूले नही। उन्हें ब्रज की सुधि प्राय: आया करती थी। अत: उद्धव जी को उन्होंने भेजा कि वे वहाँ जाकर लोगों को सांत्वना दें। बलराम ब्रज में दो मास तक रहे। इस समय का उपयोग भी उन्होंने अच्छे ढंग से किया। वे कृषि-विद्या में निपुण थे। उन्होंने अपने कौशल से वृन्दावन से दूर बहने वाली यमुना में इस प्रकार से बाँध बांधा कि वह वृन्दावन के पास से होकर बहने लगी।
द्वारका पहुँच कर भगवान् श्री कृष्ण ने वहाँ स्थायी रूप से निवास करने का विचार दृढ़ किया और आवश्यक व्यवस्था में लग गये। जब पंचाल के राजा द्रुपद द्वारा द्रौपदी-स्वयंवर तथा मध्य-भेद की बात चारों तरफ फैली तो भगवान् श्री कृष्ण भी उस स्वयंवर में गये। वहाँ उनकी बुआ के लड़के पांडव भी मौजूद थे।पांडव अर्जुन ने मध्य भेद कर द्रौपदी को प्राप्त कर लिया और इस प्रकार अपनी धनुर्विद्या का कौशल अनेक देश के राजाओं के समक्ष प्रकट किया। इससे भगवान् श्री  कृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन के प्रति वे विशेष लगाव था क्योंकि वे उनके सखा नर थे। वे पांडवों के साथ हस्तिनापुर लौटे। कुरुराज धृतराष्ट्र ने पांडवों को इन्द्रप्रस्थ के आस-पास का प्रदेश दिया था। पांडवों ने भगवान् श्री कृष्ण के द्वारका-संबंधी अनुभव का लाभ उठाया।
उनकी सहायता से उन्होंने जंगल के एक भाग को साफ़ करा कर इन्द्रप्रस्थ नगर को अच्छें ढंग से बसाया। इसके बाद भगवान् श्री कृष्ण द्वारका लौट गये। भगवान् श्री कृष्ण के द्वारका लौटने के कुछ समय बाद अर्जुन तीर्थयात्रा के लिए निकले। अनेक स्थानों में होते हुए वे प्रभास क्षेत्र पहुँचें। भगवान् श्री कृष्ण ने जब यह सुना तब वे प्रभास जाकर अपने प्रिय सखा अर्जुन को अपने साथ द्वारिका ले आये। यहाँ अर्जुन का बड़ा स्वागत सत्कार हुआ। उन दिनों रैवतक पर्वत पर यादवों का मेला लगता था। इस मेलें में अर्जुन भी भगवान् श्री कृष्ण के साथ गये। उन्होंने यहाँ सुभद्रा को देखा और उस पर मोहित हो गये। भगवान् श्री कृष्ण ने कहा-सुभद्रा मेरी बहिन है, पर यदि तुम उससे विवाह करना चाहते हो तो उसे यहाँ से हर कर ले जा सकते हो, क्यों कि वीर क्षत्रियों के द्वारा विवाह हेतु स्त्री का हरण निंद्य नहीं, बल्कि श्रेष्ठ माना जाता है।
अर्जुन सुभद्रा को भगा ले चले। जब इसकी ख़बर यादवों को लगी तो उनमें बड़ी हलचल मच गई। सभापाल ने सूचना देकर सब गण-मुख्यों को सुधर्मा-भवन में बुलाया, जहाँ इस विषय पर बड़ा वाद-विवाद हुआ। बलराम अर्जुन के इस व्यवहार से अत्यन्त क्रुद्ध हो गये थे और उन्होंने प्रण किया कि वे इस अपमान का बदला अवश्य लेंगें। भगवान् श्री कृष्ण ने बड़ी कुशलता के साथ अर्जुन के कार्य का समर्थन किया।भगवान् श्री  कृष्ण ने निर्भीक होकर कहा कि अर्जुन ने क्षत्रियोचित कार्य ही किया है।भगवान् श्री कृष्ण के अकाट्य तर्कों के आगे किसी की न चली। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर शांत किया। फिर वे बलराम तथा कुछ अन्य अंधक-वृष्णियों के साथ बड़ी धूमधाम से दहेज का सामान लेकर पांडवों के पास इंन्द्रप्रस्थ पहुँचे। अन्य लोग तो शीघ्र इन्द्रप्रस्थ से द्वारका लौट आये, किंतु भगवान् श्री कृष्ण कुछ समय वहाँ ठहर गये। इस बार पांडवों के राज्य के अंतर्गत खांडव वन नामक स्थान में भयंकर अग्निकांड हो गया, किंतु भगवान् श्री  कृष्ण और अर्जुन के प्रयत्नों से अग्नि बुझा दी गई और वहाँ के निवासी मय तथा अन्य दानवों की रक्षा की जा सकी।
कुछ समय बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ आरंभ कर दी। और आवश्यक परामर्श के लिए कृष्ण को बुलाया।भगवान् श्री कृष्ण इन्द्रप्रस्थ आये और उन्होंने राजसूय यज्ञ के विचार की पुष्टि की। उन्होंने यह सुझाव दिया कि पहले अत्याचारी शासकों को नष्ट कर दिया जाय और उसके बाद यज्ञ का आयोजन किया जाय।भगवान् श्री  कृष्ण ने युधिष्ठिर को सबसे पहले जरासंध पर चढ़ाई करने की मन्त्रणा दी। तद्नुसार भीम और अर्जुन के साथ कृष्ण रवाना हुए और कुछ समय बाद मगध की राजधानी गिरिब्रज पहुँच गये। भगवान् श्री कृष्ण की नीति सफल हुई और उन्होंने भीम के द्वारा मल्लयुद्ध में जरासंध को मरवा डाला। जरासंध की मृत्यु के बाद भगवान् श्री कृष्ण ने उसके पुत्र सहदेव को मगध का राजा बनाया। फिर उन्होंने गिरिब्रज के कारागार में बन्द बहुत से राजाओं को मुक्त किया। इस प्रकार भगवान् श्री  कृष्ण ने जरासंध-जैसे महापराक्रमी और क्रूर शासक का अन्त कर बड़ा यश पाया। जरासंध के पश्चात पांडवों ने भारत के अन्य कितने ही राजाओं को जीता।
अब पांडवों का राजसूय यज्ञ बड़ी धूमधाम से आरम्भ हुआ। भगवान् श्री कृष्ण ने यज्ञ में आये हुए ब्राह्मणों के पैर आदर-भाव से धोये। ब्रह्मचारी भीष्म ने भगवान् श्री कृष्ण की प्रशंसा की तथा उनकी अग्रपूजा` करने का प्रस्ताव किया। सहदेव ने सर्वप्रथम भगवान् श्री कृष्ण को अर्ध्यदान दिया। चेदि-नरेश शिशुपाल भगवान् श्री कृष्ण के इस सम्मान को सहन न कर सका और उलटी-सीधी बातें करने लगा। उसने युधिष्ठिर से कहा कि भगवान् श्री कृष्ण न तो ऋत्विक् है, न राजा और न आचार्य। केवल चापलूसी के कारण तुमने उसकी पूजा की है।शिशुपाल (पूर्वजन्म मे रावण) दो कारणों से भगवान् श्री कृष्ण से विशेष द्वेष मानता था-प्रथम तो विदर्भ कन्या रुक्मिणी के कारण, जिसको भगवान् श्री कृष्ण हर लाये थे और शिशुपाल का मनोरथ अपूर्ण रह गया था। दूसरे जरासंध के वध के कारण, जो शिशुपाल का घनिष्ठ मित्र था। जब शिशुपाल यज्ञ में भगवान् श्री कृष्ण के अतिरिक्त भीष्म और पांडवों की भी निंदा करने लगा तब भगवान् श्री कृष्ण से सहा नहीं गया और उन्होंने उसे मुख बंद करने की चेतावनी दी। किंतु वह चुप नहीं रह सका। भगवान् श्री कृष्ण ने अन्त में शिशुपाल को यज्ञ में ही समाप्त कर दिया। अब पांडवों का राजसूर्य यज्ञ पूरा हुआ। पर इस यज्ञ तथा पांडवों की बढ़ती को देख उनके प्रतिद्वंद्वी कौरवों के मन में विद्वेश की अग्नि प्रज्वलित हो उठी और वे पांडवों को नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे।
युद्ध की पृष्ठ भूमि :- यज्ञ के समाप्त हो जाने पर भगवान् श्री कृष्ण युधिष्ठिर से आज्ञा ले द्वारका लौट गये। इसके कुछ समय उपरांत दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि की सहायता से छल द्वारा जुए में पांडवों को हरा दिया और उन्हें इस शर्त पर तेरह वर्ष के लिए निर्वासित कर दिया कि अंतिम वर्ष उन्हें अज्ञातवास करना पड़ेगा। पांडव द्रौपदी के साथ काम्यकवन की ओर चले गये। उनके साथ सहानुभूति रखने वाले बहुत से लोग काम्यक वन में पहुँचे, जहाँ पांडव ठहरे थे। भोज, वृष्णि और अंधक-वंशी यादव तथा पंचाल-नरेश द्रुपद भी उनसे मिले। भगवान् श्री कृष्ण को जब यह सब ज्ञात हुआ तो वह शीघ्र पांडवों से मिलने आये। उनकी दशा देख तथा द्रौपदी की आक्रोशपूर्ण प्रार्थना सुन कृष्ण द्रवित हो उठे। उन्होंने द्रौपदी को वचन दिया कि वे पांडवों की सब प्रकार से सहायता करेगें और उनका राज्य वापस दिलावेंगे।
विरहिणी राधा :- इसके बाद भगवान् श्री कृष्ण सुभद्रा तथा उसके बच्चे अभिमन्यु को लेकर द्वारका वापस गये। पांडवों ने अज्ञातवास का एक साल राजा विराट के यहाँ व्यतीत किया। कौरवों ने विराट पर चढ़ाई कर उनके पशु छीन लिये थे, पर पांडवों की सहायता से विराट ने कौरवों पर विजय पाई और अपने पशुओं को लौटा लिया। विराट को अन्त में यह ज्ञात हुआ कि उनके यहाँ पांडव गुप्त रूप से अब तक निवास करते रहे थे। उन्होंने अपनी पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ कर दिया। इस विवाह में अभिमन्यु के मामा भगवान् श्री  कृष्ण बलदेव भी सम्मिलित हुए।Image may contain: 3 people, people smiling
इसके उपरांत विराट नगर में सभा हुई और उसमें विचार किया गया कि कौरवों से पांडवों का समझौता किस प्रकार कराया जाय। बलराम जी ने कहा कि शकुनि का इस झगड़े में कोई दोष नहीं था; युधिष्ठिर उसके साथ जुआ खेलने ही क्यों गये ? हाँ, यदि किसी प्रकार संधि हो जाय तो अच्छा है। सात्यकि और द्रुपद को बलराम की ये बाते अच्छी नहीं लगी। भगवान् श्री कृष्ण ने द्रुपद के कथन की पुष्टि करते हुए कहा कि कौरव अवश्य दोषी है। अतं में सर्व-सम्मति से यह तय हुआ कि संधि के लिए किसी योग्य व्यक्ति को दुर्योधन के पास भेजा जाय। द्रुपद ने अपने पुरोहित को इस काम के लिए भेजा। भगवान् श्री कृष्ण इस सभा में सम्मिलित होने के बाद द्वारका चले गये। संधि की बात तब न हो सकी। दुर्धोधन पांडवों को पाँच गाँव तक देने की राजी न हुआ। अब युद्ध अनिवार्य जानकर दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही भगवान् श्री कृष्ण ने सहायता प्राप्त करने के लिए द्वारका पहुँचे। परम् नीतिज्ञ भगवान् श्री  कृष्ण ने पहले दुर्योधन ने पूछा कि तुम मुझे लोगे या मेरी सेना को ? दुर्योधन ने तत्त्काल सेना मांगी। भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को वचन दिया कि वह उसके सारथी बनेगें और स्वयं शस्त्र न ग्रहण करेगें।
भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ आ गये।भगवान् श्री कृष्ण के आने पर पांडवों ने फिर एक सभा की और निश्चय किया कि एक बार संधि का और प्रयत्न किया जाय। युधिष्ठिर ने अपना मत प्रकट करने हुए कहा- हम पाँच भाइयों को अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणाबत और एक कोई अन्य गांव निर्वाह मात्र के लिए चाहिए। इतने पर ही हम मान जायेगें, अन्यथा युद्ध के लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने भी किया। वह तय हुआ कि इस बार संधि का प्रस्ताव लेकर कृष्ण कौरवों के पास जाये। कृष्ण संधि कराने को बहुत इच्छुक थे। उन्होंने दुर्योधन की सभा में जाकर उसे समझाया और कहा कि केवल पाँच गाँव पांडवों को देकर झगड़ा समाप्त कर दिया जाय। परंतु अभिमानी दुर्योधन स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के वह पांडवों को सुई की नोंक के बराबर भी ज़मीन न देगा।
महाभारत युद्ध :-  इस प्रकार भगवान् श्री कृष्ण भी संधि कराने में असफल हुए। अब युद्ध अनिवार्य हो गया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी सेनाएँ तैयार करने लगे। इस भंयकर युद्धग्नि में इच्छा या अनिच्छा से आहुति देने को प्राय: सारे भारत के शासक शामिल हुए। पांडवों की ओर मध्स्य, पंचाल, चेदि, कारूश, पश्चिमी मगध, काशी और कंशल के राजा हुए। सौराष्ट्र-गुजरात के वृष्णि यादव भी पांडवो के पक्ष में रहे।भगवान् श्री कृष्ण, युयंधान और सात्यकि इन यादवों के प्रमुख नेता थे। ब्रजराम अद्यपि कौरवों के पक्षपाती थे, तो भी उन्होंने कौरव-पांडव युद्ध में भाग लेना उचित न समझा और वे तीर्थ-पर्यटन के लिए चले गये। कौरवों की और शूरसेन प्रदेश के यादव तथा महिष्मती, अवंति, विदर्भ और निषद देश के यादव हुए। इनके अतिरिक्त पूर्व में बंगाल, आसाम, उड़ीसा तथा उत्तर-पश्चिम एवं पश्चिम भारत के बारे राजा और वत्स देश के शासक कौरवों की ओर रहे। इस प्रकार मध्यदेश का अधिकांश, गुजरात और सौराष्ट्र का बड़ा भाग पांडवों की ओर था और प्राय: सारा पूर्व, उत्तर-पश्चिम और पश्चिमी विंध्य कौरवों की तरफ। पांडवों की कुल सेना सात अक्षौहिणी तथा कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी थी।
दोनों ओर की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार हुई। भगवान् श्री कृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा सात्वकि ने पांडव-सैन्य की ब्यूह-रचना की। कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध मैदान में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने आ डटीं। अर्जुन के सारथी कृष्ण थे। युद्धस्थल में अपने परिजनों आदि को देखकर अर्जुन के चित्त में विषाद उत्पन्न हुआ और उसने युद्ध करने से इंकार कर दिया। तब भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता के निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया और उसकी भ्रांति दूर की। अब अर्जुन के युद्ध के लिए पूर्णतया प्रस्तुत हो गया। महाभारत युद्ध में शंख का भी अत्यधिक महत्त्व था। शंखनाद के साथ युद्ध प्रारंभ होता था। जिस प्रकार प्रत्येक रथी सेनानायक का अपना ध्वज होता था, उसी प्रकार प्रमुख योद्धाओं के पास अलग-अलग शंख भी होते थे। भीष्मपर्वांतर्गत गीता उपपर्व के प्रारंभ में विविध योद्धाओं के नाम दिए गए हैं। कृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य था, अर्जुन का देवदत्त, युधिष्ठिर का अनंतविजय, भीम का पौण्ड, नकुल का सुघोष और सहदेव का मणिपुष्पक। अठारह दिन तक यह महाभीषण संग्राम होता रहा। देश का अपार जन-धन इसमें स्वाहा हो गया। कौरवों के शक्तिशाली सेनापति भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य आदि धराशायी हो गये। अठारहवें दिन दुर्योधन मारा गया और महाभारत युद्ध की समाप्ति हुई। यद्यपि पांडव इस युद्ध में विजयी हुए, पर उन्हें शांति न मिल सकी। चारों और उन्हें क्षोभ और निराशा दिखाई पड़ने लगी। भगवान् श्री कृष्ण ने शरशय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह से युधिष्ठर को उपदेश दिलवाया। फिर हस्तिनापुर में राज्याभिषेक-उत्सव सम्पन्न करा कर वे द्वारका लौट गये। पांडवों ने कुछ समय बाद एक अश्वमेध यज्ञ किया और इस प्रकार वे भारत के चक्रवर्ती सम्राट् घोषित हुए। भगवान् श्री कृष्ण भी इस यज्ञ में सम्मिलित हुए और फिर द्वारका वापस चले गये। यह भगवान् श्री कृष्ण की अंतिम हस्तिनापुर यात्रा थी। Please refer to:-MAHA BHARAT  KATHA महा भारत  कथा over the blog:: santoshkipathshala.blogspot.com   for more details.
भगवान् श्री कृष्ण का द्वारका का जीवन :- द्वारका नगर बिलकुल नवीन नहीं था। वैवस्वत मनु के एक पुत्र शर्याति को शासन में पश्चिमी भारत का भाग मिला था। शर्याति के पुत्र आनर्त के नाम पर कठियावाड़ और समीप के कुछ प्रदेश का नाम आनंत प्रसिद्ध हुआ। उसकी राजधानी कुशस्थली के ध्वंसावशेषों पर कृष्ण कालीन द्वारका की स्थापना हुई। बलराम जी ने अपने श्वसुर से यह स्थान दहेज के रूप में माँग लिया जिसे समुन्द्र ने भगवान् श्री कृष्ण के कहने पर खालीकर दिया। यहाँ आकर भगवान् श्री कृष्ण ने उग्रसेन को वृष्णिगण का प्रमुख बनाया। द्वारका में भगवान् श्री कृष्ण के वैयक्तिक जीवन की पहली मुख्य घटना थी-कुंडिनपुर की सुंदरी राजकुमारी रुक्मिणी के साथ विवाह। हरिवंश पुराण में यह कथा विस्तार से दी हुई है। रुक्मिणी का भाई रुक्मी था। वह अपनी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल से करना चाहता था। मगधराज जरासंध भी यही चाहता था। किंतु कुंडिनपुर का राजा कृष्ण को ही अपनी कन्या देना चाहता था। रुक्मिणी स्वयं भी भगवान् श्री कृष्ण को वरना चाहती थी। उनके सौंदर्य और शौर्य की प्रशंसा सुन रखी थी। रुक्मिणी (माँ लक्ष्मी) का स्वयंवर रचा गया और वहाँ से कृष्ण उन्हें हर कर ले गये। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे पराजित हुए। इस घटना से शिशुपाल भगवान् श्री कृष्ण के प्रति गहरा द्वेष मानने लगा।
बलराम का विवाह भी द्वारका जाकर हुआ। संभवत: पहले बलराम जी का विवाह हुआ, फिर भगवान् श्री कृष्ण का।  बलराम जी का विवाह रेवती से हुआ जो कि कद में उनसे बहुत बड़ी थीं। दाऊ जी ने उन्हें अपने हल से दबाकर त्रेता युग के अनुरूप कर लिया। रेवती का जन्म भौतिक दृष्टि से कई युग पहले हो चूका था। भगवान् श्री कृष्ण की अन्य पत्नियाँ-रुक्मिणी के अतिरिक्त भगवान् श्री कृष्ण की सात अन्य पत्नियाँ होने का उल्लेख प्राय: सभी पुराणों में मिलता है।इनके नाम सत्यभामा, जांबवती, कालिंदी, मित्रविंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मण दिये हैं। इनमें से कोई को तो उनके माता-पिता ने विवाह में प्रदान किया और शेष को भगवान् श्री कृष्ण विजय में प्राप्त कर लाये। सतांन-पुराणों से ज्ञात होता है कि भगवान् श्री कृष्ण के संतानों की संख्या बड़ी थी।रुक्मिणी से दस पुत्र और एक कन्या थी इनमें सबसे बड़े प्रद्युम्न जी (-भगवान् श्री कृष्ण की तीसरी मूर्ति, कामदेव और ब्रह्मा जी के अंश) थे। भागवतादि पुराणों में भगवान् श्री कृष्ण के गृहस्थ-जीवन तथा उनकी दैनिक चर्या का हाल विस्तार से मिलता है। प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध का विवाह शोणितपुर के राजा वाणासुर की पुत्री ऊषा के साथ हुआ।
यदुवंश का  नाश :- यादव बहुत अधिक उदण्ड हो गए थे। उनका मद सम्भाले नहीं संभलता था। अतः यह पमावश्यक हो गया कि वो भी नष्ट हो जायें। गान्धारी को भगवान् श्री कृष्ण पर आक्रोश था। वो जानती थी कि यदि भगवान् श्री कृष्ण चाहते तो उसका वंशनाश नहीं होता। उसने महाभारत युद्ध के लिए भगवान् श्री कृष्ण को दोषी ठहराते हुए श्राप दिया कि जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ, ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश हो जाये। गांधारी के श्राप से विनाशकाल आने के कारण भगवान् श्री कृष्ण द्वारिका लौटकर यदुवंशियों को लेकर प्रयास क्षेत्र में आ गये थे। यदुवंशी अपने साथ अन्न-भंडार भी ले आये थे। कृष्ण ने ब्राह्मणों को अन्नदान देकर यदुवंशियों को मृत्यु का इंतजार करने का आदेश दिया था। अंधक-वृष्णि यादव बड़ी संख्या में महाभारत युद्ध में काम आये। जो शेष बचे वे आपस में मिल-जुल कर अधिक समय तक न रह सके।यादवों में विकास की वृद्धि हो चली थी और ये मदिरा-पान अधिक करने लगे थे। भगवान् श्री कृष्ण-बलराम के समझाने पर भी ऐश्वर्य से मत्त यादव न माने और वे कई दलों में विभक्त हो गये। एक दिन प्रभास के मेले में, जब यादव लोग वारुणी के नशें में चूर थे, तो महाभारत-युद्ध की चर्चा करते हुए सात्यकि और कृतवर्मा में विवाद हो गया। सात्यकि ने गुस्से में आकर कृतवर्मा का सिर काट दिया। इससे उनमें आपसी युद्ध भड़क उठा और वे समूहों में विभाजित होकर एक-दूसरे का संहार करने लगे। वह झगड़ा इतना बढ़ गया कि अंत में वे सामूहिक रूप से कट मरे। इस प्रकार यादवों ने गृह-युद्ध अपना अन्त कर लिया। भगवान् श्री कृष्ण के गौलोक गमन के बाद द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ। भगवान् श्री  कृष्ण के बाद उनके प्रपौत्र बज्र यदुवंश के उत्तराधिकारी हुए। पुराणों के अनुसार वे मथुरा आये और इस नगर को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया। यदुवंश के नाश के बाद कृष्ण के ज्येष्ठ भाई बलराम समुद्र तट पर बैठ गए और एकाग्रचित्त होकर परमात्मा में लीन हो गए। इस प्रकार शेषनाग के अवतार बलरामजी ने देह त्यागी और स्वधाम लौट गए।
भगवान् श्री कृष्ण का गौलोक गमन :- भगवान् शेष के अवतार बलराम जी के देह त्यागने के बाद जब एक दिन  भगवान् श्री कृष्ण पीपल के नीचे ध्यान की मुद्रा में बैठे हुए थे, तब उस क्षेत्र में एक जरा नाम का बहेलिया आया हुआ था। जरा एक शिकारी था और वह हिरण का शिकार करना चाहता था। जरा को दूर से हिरण के मुख के समान भगवान् श्री कृष्ण का तलवा दिखाई दिया। बहेलिए ने बिना कोई विचार किए वहीं से एक तीर छोड़ दिया जो कि श्रीकृष्ण के तलवे में जाकर लगा। जब वह पास गया तो उसने देखा कि भगवान् श्री कृष्ण के पैरों में उसने तीर मार दिया है। इसके बाद उसे बहुत पश्चाताप हुआ और वह क्षमा याचना करने लगा। तब भगवान् श्री कृष्ण ने बहेलिए से कहा कि जरा तू डर मत, तूने मेरे मन का काम किया है। अब तू मेरी आज्ञा से स्वर्गलोक प्राप्त करेगा।त्रेता युग में भगवान् श्री राम के रूप में अवतार लेकर भगवान् विष्णु ने देवराज इन्द्र के पुत्र बाली को पेड़ की आड़ लेकर तीर मारा था। कृष्णावतार के समय भगवान्  ने उसी बाली को जरा नामक बहेलिया बनाया और अपने लिए वैसी ही मृत्यु चुनी, जैसी बाली को दी थी।
बहेलिए के जाने के बाद वहां भगवान् श्री कृष्ण का सारथी दारुक पहुँच गया। दारुक को देखकर भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि वह द्वारिका जाकर सभी को यह बताए कि पूरा यदुवंश नष्ट हो चुका है और बलराम जी के साथ भगवान् श्री कृष्ण भी स्वधाम लौट चुके हैं। अत: सभी लोग द्वारिका छोड़ दें, क्योंकि यह नगरी अब जल मग्न होने वाली है। मेरी माता, पिता और सभी प्रियजन इंद्रप्रस्थ को चले जाएं। यह संदेश लेकर दारुक वहाँ से चला गया। इसके बाद उस क्षेत्र में सभी देवता और स्वर्ग की अप्सराएं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि आए और उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण की आराधना की। आराधना के बाद भगवान् श्री कृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर लिए और वे गौलोक धाम को लौट गए।भगवान् श्री कृष्ण और बलराम के स्वधाम गमन की सूचना इनके प्रियजनों तक पहुंची तो उन्होंने भी इस दुख से प्राण त्याग दिए। देवकी, रोहिणी, वसुदेव, बलराम जी की पत्नियां, भगवान् श्री कृष्ण की पटरानियां आदि सभी ने शरीर त्याग दिए। इसके बाद अर्जुन ने यदुवंश के निमित्त पिण्डदान और श्राद्ध आदि संस्कार किए।
प्रभास के यादव युद्ध में चार प्रमुख व्यक्ति भगवान् श्री कृष्ण, बलराम जी (-शेषनाग), दारुक सारथी और बभ्रु इस रक्तपात से दूर रहे।भगवान् श्री कृष्ण बड़े मर्माहत हुए। वे द्वारका गये और दारुक को अर्जुन के पास भेजा कि वह आकर स्त्री-बच्चों को हस्तिनापुर लिवा ले जायें। संस्कारों के बाद यदुवंश के बचे हुए लोगों को लेकर अर्जुन इंद्रप्रस्थ लौट आए।कुछ स्त्रियों ने जल कर प्राण दे दिये। अर्जुन आये और शेष स्त्री-बच्चों को लिवा कर चले।मार्ग में पश्चिमी राजपूताना के जंगली आभीरों से अर्जुन को मुक़ाबला करना पड़ा। कुछ स्त्रियों को आभीरों ने लूट लिया। शेष को अर्जुन ने शाल्ब देश और कुरु देश में बसा दिया। भगवान् श्री कृष्ण के निवास स्थान को छोड़कर शेष द्वारिका समुद्र में समा गई। भगवान् श्री कृष्ण के स्वधाम लौटने की सूचना पाकर सभी पाण्डवों ने भी हिमालय की ओर यात्रा प्रारंभ कर दी थी। इसी यात्रा में ही एक-एक करके पांडव भी शरीर का त्याग करते गए। अंत में धर्मराज युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग पहुँचे।
भगवान् श्री कृष्ण नारद संवाद :- यादवों के अंधक-वृष्णि संघ की कार्य-प्रणाली गणतंत्रात्मक थी और बहुत समय तक वह अच्छे ढंग से चलती रही। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से पता चलता है कि अंधक-वृष्णि-संघ काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था। इसका मुख्य कारण यही था कि संघ के द्वारा गणराज्य के सिद्धांतों का सम्यक् रूप से पालन होता था; चुने हुए नेताओं पर विश्वास किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में अंधकों और वृष्णियों की अलग-अलग मान्यताएँ हो गई और उनमें कई दल हो गये। प्रत्येक दल अब अपना राजनीतिक प्रमुख स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने लगा। इनकी सभाओं में सदस्यों को जी भर कर आवश्यक विवाद करने की स्वतन्त्रता थी। एक दल दूसरे की आलोचना भी करता था। जिस प्रकार आजकल अच्छे से अच्छे सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी बुराइयाँ होती है, उसी प्रकार उस समय भी ऐसे दलगत आक्षेप हुआ करते थे। महाभारत के शांति पर्व के 81वें अध्याय में एक ऐसे वाद-विवाद का वर्णन है जो तत्कालीन प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली का अच्छा चित्र उपस्थित करता है। यह वर्णन भगवान् श्री कृष्ण और नारद के बीच संवाद के रूप में है।
वासुदेव उवाच :- देवर्षि! जो व्यक्ति सुहृद न हो, जो सुहृद तो हो किन्तु पण्डित न हो तथा जो सुहृद और पण्डित तो हो किन्तु अपने मन को वश में न कर सका हो-ये तीनों ही परम गोपनीय मन्त्रणा को सुनने या जानने के अधिकारी नहीं हैं। स्वर्ग विचरनेवाले नारदजी! मैं आपके सौहार्द पर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करूँगा। मनुष्य किसी व्यक्ति बुद्धि-बल की पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता है।मैं अपनी प्रभुता प्रकाशित करके जाति-भाइयों, कुटुम्बी-जनों को अपना दास बनाना नहीं चाहता। मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग ही अपने उपभोग में लाता हूँ, शेष आधा भाग कुटुम्बीजनों के लिये ही छोड़ देता हूँ और उनकी कड़वी बातों को सुनकर भी क्षमा कर देता हूँ।देवर्षि! जैसे अग्नि को प्रकट करने की इच्छा वाला पुरुष अरणीकाष्ठ का मन्थन करता है, उसी प्रकार इन कुटुम्बी-जनों का कटुवचन मेरे हृदय को सदा मथता और जलाता रहता है।नारद जी! बड़े भाई बलराम में सदा ही असीम बल है; वे उसी में मस्त रहते हैं। छोटे भाई गद में अत्यन्त सुकुमारता है (अत: वह परिश्रम से दूर भागता है); रह गया बेटा प्रद्युम्न, सो वह अपने रूप-सौन्दर्य के अभिमान से ही मतवाला बना रहता है। इस प्रकार इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हूँ।नारद जी! अन्धक तथा वृष्णि वंश में और भी बहुत से वीर पुरुष हैं, जो महान सौभाग्यशाली, बलवान एवं दु:सह पराक्रमी हैं, वे सब के सब सदा उद्योगशील बने रहते हैं।ये वीर जिसके पक्ष में न हों, उसका जीवित रहना असम्भव है और जिसके पक्ष में ये चले जाएँ, वह सारा का सारा समुदाय ही विजयी हो जाए। परन्तु आहुक और अक्रूर ने आपस में वैमनस्य रखकर मुझे इस तरह अवरुद्ध कर दिया है कि मैं इनमें किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता।आपस में लड़ने वाले आहुक और अक्रूर दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिये इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या होगी? और वे दोनों ही जिसके सुहृद् न हों, उसके लिये भी इससे बढ़कर और दु:ख क्या हो सकता है? (क्योंकि ऐसे मित्रों का न रहना भी महान दु:खदायी होता है) महामते! जैसे दो जुआरियों की एक ही माता एक की जीत चाहती है तो दूसरे की भी पराजय नहीं चाहती, उसी प्रकार मैं भी इन दोनों सुहृदों में से एक की विजय कामना करता हूँ तो दूसरे की पराजय नहीं चाहता।नारद जी! इस प्रकार मैं सदा उभय पक्ष का हित चाहने के कारण दोनों ओर से कष्ट पाता रहता हूँ। ऐसी दशा में मेरा अपना तथा इन जाति-भाइयों का भी जिस प्रकार भला हो, वह उपाय आप बताने की कृपा करें।
नारद उवाच :- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! आपत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं-एक ब्रह्म और दूसरी आभ्यन्तर। वे दोनों ही स्वकृत और परकृत भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं।अक्रूर और आहुक से उत्पन्न हुई यह कष्टदायिनी आपत्ति जो आप को प्राप्त हुई है, आभ्यन्तर है और अपनी ही करतूतों से प्रकट हूई है। ये सभी जिनके नाम आपने गिनाये हैं, आपके ही वंश हैं।आपने स्वयं जिस ऐश्वर्य को प्राप्त किया था, उसे किसी प्रयोजन वश या स्वेच्छा से अथवा कटुवचन से डरकर दूसरे को दे दिया।सहायशाली श्री कृष्ण! इस समय उग्रसेन को दिया हुआ वह ऐश्वर्य दृढ़मूल हो चुका है। उग्रसेन के साथ जाति के लोग भी सहायक हैं; अत: उगले हुए अन्न की भाँति आप उस दिये हुए ऐश्वर्य को वापस नहीं ले सकते।श्री कृष्ण! अक्रूर और उग्रसेन के अधिकार में गए हुए राज्य को भाई-बन्धुओं में फूट पड़ने के भय से अन्य की तो कौन कहे इतने शक्तिशाली होकर स्वयं भी आप किसी तरह वापस नहीं ले सकते।बड़े प्रयत्न से अत्यन्त दुष्कर कर्म महान संहाररूप युद्ध करने पर राज्य को वापस लेने का कार्य सिद्ध हो सकता है, परन्तु इसमें धन का बहुत व्यय और असंख्य मनुष्यों का पुन: विनाश होगा।अत: श्री कृष्ण! आप एक ऐसे कोमल शस्त्र से, जो लोह का बना हुआ न होने पर भी हृदय को छेद डालने में समर्थ है , परिमार्जन और अनुमार्जन करके उन सबकी जीभ उखाड़ लें-उन्हें मूक बना दें (जिससे फिर कलह का आरम्भ न हो)।
वासुदेव उवाच :- मुने! बिना लोहे के बने हुए उस कोमल शस्त्र को मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन और अनुमार्जन करके इन सबकी जिह्वा को उखाड़ लूँ।
नारद उवाच :- श्री कृष्ण! अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (आदर-सत्कार) करना यही बीना लोहे का बना हुआ शस्त्र है।जब सजातीय बन्धु आप के प्रति कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें, उस समय आप मधुर वचन बोलकर उनके हृदय, वाणी तथा मन को शान्त कर दें।जो महापुरुष नहीं है, जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है तथा जो सहायकों से सत्पन्न नहीं है, वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता। अत: आप ही इस गुरुतर भार को हृदय से उठाकर वहन करें।समतल भूमिपर सभी बैल भारी भार वहन कर लेते हैं; परन्तु दुर्गम भूमि पर कठिनाई से वहन करने योग्य गुरुतर भार को अच्छे बैल ही ढोते हैं।केशव! आप इस यादवसंघ के मुखिया हैं। यदि इसमें फूट हो गयी तो इस समूचे संघ का विनाश हो जाएगा; अत: आप ऐसा करें जिससे आप को पाकर इस संघ का- इस यादवगणतन्त्र राज्य का मूलोच्छेद न हो जाए।बुद्धि, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह के बिना तथा धन-वैभव का त्याग किये बिना कोई गण अथवा संघ किसी बुद्धिमान पुरुष की आज्ञा के अधीन नहीं रहता है।श्री कृष्ण! सदा अपने पक्ष की ऐसी उन्नति होनी चाहिए जो धन, यश तथा आयु की वृद्धि करने वाली हो और कुटुम्बीजनों में से किसी का विनाश न हो। यह सब जैसे भी सम्भव हो, वैसा ही कीजिये।प्रभु! संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय- इन छहों गुणों के यथासमय प्रयोग से तथा शत्रु पर चढ़ाई करने के लिए यात्रा करने पर वर्तमान या भविष्य में क्या परिणाम निकलेगा? यह सब आप से छिपा नहीं है।महाबाहु माधव! कुकुर, भोज, अन्धक और वृष्णि वंश के सभी यादव आप में प्रेम रखते हैं। दूसरे लोग और लोकेश्वर भी आप में अनुराग रखते हैं। औरों की तो बात ही क्या है? बड़े-बड़े ॠषि-मुनि भी आपकी बुद्धि का आश्रय लेते हैं।आप समस्त प्राणियों के गुरु हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य को जानते हैं। आप जैसे यदुकुलतिलक महापुरुष का आश्रय लेकर ही समस्त यादव सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते हैं।
अंधक-वृष्णि संघ में शास्त्र के अनुसार व्यवहार (न्याय) संपादित होता था। अंतर और बाह्य विभाग, अर्थ विभाग-ये सब नियमित रूप से शासित होते थे। गण-मुख्य का काम कार्यवाहक प्रण-प्रधान (राजन्य) देखता था। गण-मुख्यों-अक्रुर अंधक, आहुक आदि-की समाज में प्रतिष्ठा थी। अंधक-वृष्णियों का मन्त्रगण सुधर्मा नाम से विख्यात था। समय-समय पर परिषद् की बैठकें महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार करने के लिए हुआ करती थी।सभापाल परिषद् बुलाता था। प्रत्येक सदस्स्य को अपना मत निर्भीकता से सामने रखने का अधिकार था। जो अपने मत का सर्वोत्तम ढंग से समर्थन करता वह परिषद् को प्रभावित कर सकता था। गण-मुख्य अलग-अलग शाखाओं के नेता होते थे। राज्य के विभिन्न विभाग उनके निरीक्षण में कार्य करते थे। इन शाखाओं या जातीय संघों को अपनी-अपनी नीति के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता थी, महाभारत में यादवों की कुछ शाखाएं इसी कारण पाडंवों की ओर से लड़ी और कुछ कौरवों की ओर से । इससे स्पष्ट है कि महाभारत युद्ध के समझ जातीय-संघों का काफ़ी ज़ोर हो गया था।


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